विचार
भागवत और वंजारा साथ-साथ: हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी?
- अहमदाबाद में फर्जी मुठभेड़ के आरोपी पूर्व पुलिस अधिकारी डीजी वंजारा के सार्वजनिक अभिनंदन और संघ प्रमुख मोहन भागनत के साथ मंच साझा करने की घटना हाल ही में चर्चा का विषय रही.
पाकिस्तान का विरोध करते करते-करते हम कब उसकी शक्ल में ढल गए, पता
ही नहीं चला. सबसे ताज़ा उदाहरण गुजरात के प्रख्यात पुलिस अधिकारी दह्याजी
गोबरजी वंजारा को जमानत मिलने के बाद गुजरात वापसी पर उनके ज़बरदस्त स्वागत
और खुद उनके तलवार-नृत्य का है.इस खबर से कुछ लोगों को पाकिस्तान में
सलमान तासीर के कातिल मुमताज कादिर की फांसी के बाद उसके जनाजे पर उमड़ी
हजारों की भीड़ याद आ गई होगी.
कादिर ने सलमान तासीर को इसलिए मार डाला था क्योंकि उनकी नज़र में तासीर ने इस्लाम और मुहम्मद साहब की शान में गुस्ताखी की थी. तासीर का कसूर यह था उन्होंने पाकिस्तान के ईश-निंदा क़ानून की आलोचना की थी और एक ईसाई औरत आसिया बीबी के पक्ष में बात की थी जिस पर ईश निंदा का आरोप था.
इसके
बाद कादिर ने तासीर को, जिनका वह अंगरक्षक था, गोलियों से भून डाला. कादिर
गिरफ्तार हुआ, उस पर मुकदमा चला जो खासा डरावना और नाटकीय था. कादिर को
फांसी की सजा सुनाने वाले न्यायाधीश ने फैसला सुनाते ही देश छोड़ दिया.
उस अदालत पर पहले हमला भी हुआ. कादिर की एक तरह से पूजा होने लगी और जेल में वह एक धर्मोपदेशक बन गया.
पढ़ेंः संघ के कार्यक्रम में एक मंच पर जुटे डीजी वंजारा और मोहन भागवत
कादिर की इस भयंकर लोकप्रियता के बावजूद पाकिस्तान ने उसे न सिर्फ फांसी की सजा सुनाई बल्कि फांसी दे भी दी. इस सजा का हम सैद्धांतिक आधार पर विरोध कर सकते हैं, लेकिन इससे कम से कम यह जाहिर होता है कि पाकिस्तान अपने क़ानून के पालन को लेकर गंभीर है और अपराध को नतीजे तक पहुंचाता है. इसके पहले भी पाकिस्तान में कादिर की तरह के और लोगों को भी सजा दी गयी है.
कादिर के साथ पाकिस्तानी कानूनी तंत्र के व्यवहार और दारा सिंह के साथ भारतीय उच्चतम न्यायालय के बर्ताव की तुलना करें. दारा सिंह ने ओड़िसा में ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को सोते में जला कर मार डाला था.
उसका यकीन था कि वे लोगों को ईसाई बना रहे थे. जब सीबीआई ने दारा सिंह को इस जघन्य अपराध के लिए मौत की सजा देने की मांग की तो उच्चतम न्यायालय की न्यायामूर्ति पी सथाशिवम और बीएस चौहान की द्विसदस्यीय पीठ ने दारा सिंह के अपराध को इतना जघन्य मानने से इनकार कर दिया कि उसके चलते उसे फाँसी सुनाई जाए.
इसकी वजह जो बताई गई, वह अधिक चिंताजनक थी. पीठ ने कहा कि यह ठीक है कि दारा सिंह ने स्टेंस और उनेक बच्चों को ठंडे दिमाग से की गयी पूरी तैयारी के बाद मारा लेकिन यह हत्या दरअसल धर्म-परिवर्तन को लेकर उसके क्षोभ का परिणाम थी.
आगे इस पीठ ने धर्मांतरण की आलोचना करते हुए उसे अनुचित ठहराया. ऐसा करते हुए एक तरह से उसने यह कहा कि हत्या भले गलत है लेकिन उसका कारण मौजूद था, इसलिए दारा सिंह के प्रति नरमी दिखाई जानी चाहिए.
भारतीय उच्चतम न्यायालय की इस तर्क-पद्धति को अगर मानें तो मुमताज कादरी को भी फांसी नहीं होनी चाहिए थी. आखिर उसे भी रसूल के अपमान का एक जायज गुस्सा था और तासीर की हत्या सिर्फ इस गुस्से का नतीजा थी, वरना जाती तौर पर उसे तासीर से क्या अदावत थी! वह तो एक व्यापक सामाजिक क्षोभ को हत्या के जरिए जाहिर भर कर रहा था!
भारतीय क़ानून व्यवस्था और न्याय तंत्र का झुकाव हिंदू मन को समझने की ओर है, यह सिर्फ दारा सिंह के प्रति उसकी नरमी से जाहिर नहीं होता. एक मामले में फांसी न देना तो दूसरे मामले में फांसी देना: व्यापक जनभावना को फांसी से कम सजा संतुष्ट नहीं कर पाएगी, ऐसा कह कर ही अफजल गुरु को फांसी की सजा सुनाई गई.
पाकिस्तान की अदालत ने व्यापक जनभावना की परवाह नहीं की और वहां की सरकार ने भी इस जनभावना का सामना करने का जोखिम और साहस दिखाया. क्या अपने देश के बारे में यही कहा जा सकता है?
पढ़ेंः बंजारा के स्वागत में समर्थकों ने कहा भारत माता की जय
ताज्जुब नहीं कि भारत में बाबरी मस्जिद ध्वंस के लिए कौन जिम्मेदार थे, यह उस अपराध के अब चौथाई सदी बीतने पर भी तय नहीं किया जा सका, उन्हें सजा देने की बात तो दूर! हम सब ने आंखों से देखा, यानी उस अपराध के लिए व्यापक हिंसा को संगठित करने का अभियान, जिसका नेतृत्व लाल कृष्ण आडवाणी ने किया, जिन्हें बाद में नीतीश कुमार ने ‘स्टेट्समैन’ कहा और जिसमें प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष भागीदारी अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर आज के प्रधानमंत्री तक की थी.
हम जानते हैं कि इस अपराध के मुजरिमों को कभी नामजद भी नहीं किया जा सकेगा. वैसे ही जैसे मुंबई की मुस्लिम विरोधी हिंसा पर श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट को खोलने का साहस कोई न कर सका: मुसलमानों का ‘तुष्टीकरण’ करने वाली कांग्रेस पार्टी की सरकार ने भी नहीं.
दह्याजी गोबरजी वंजारा ने तो ‘राष्ट्र हित’ में कुछ राष्ट्र-विरोधियों की हत्या संगठित भर की थी! क्या इसके लिए उन्हें सजा मिलनी चाहिए? इसके लिए वे सात साल तक जेल में रहे, क्या इसका मुआवजा उन्हें नहीं मिलना चाहिए?
वंजारा
पर तुलसी प्रजापति, सोराबजी शेख और इशरत जहां की हत्या का आरोप है. इसके
अलावा मुठभेड़ के नाम पर और भी हत्याओं के आरोप उनपर हैं. अभी इनके मुक़दमे
चल रहे हैं. वे सात साल इनकी वजह से जेल में रहे. पिछले साल जब उन्हें
जमानत मिली तो भी गुजरात जाने पर रोक बनी रही. वह रोक अभी कुछ वक्त पहले
हटा ली गई.
वंजारा ने जेल में रहते हुए कहा था कि उन्होंने तो सिर्फ राजनीतिक नेताओं की योजना और उनके आदेश पर अमल भर किया था. उनकी इस बात को हवा में उड़ा दिया गया.
अब उनके गुजरात पहुंचने पर अहमदाबाद के टाउन हॉल में उनके सार्वजनिक अभिनंदन की खबर से कुछ लोगों को कादिर के लिए उमड़ी पाकिस्तानी जनता की याद आ गई, तो क्या गलत है?
वंजारा के स्वागत से हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए. कुछ दिन पहले दिल्ली में छात्र नेता कन्हैया पर हमला करने वाले भारतीय जनता पार्टी के विधायक और दूसरे वकीलों का भारत की राजधानी में सार्वजनिक अभिनंदन हो चुका है.
पढ़ेंः तीन राष्ट्रपति खारिज कर चुके हैं गुजकोक विधेयक
उसके पहले मुज्ज़फरनगर में हिंसा फैलाने के आरोप में गिरफ्तार नेताओं की रिहाई पर भी सार्वजनिक अभिनंदन देखा जा चुका है. बाद में वे केंद्र में मंत्री भी बना दिए गए.
वंजारा पर जब फर्जी मुठभेड़ के नाम पर हत्याओं का मुकदमा चल रहा था तो गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने जनसभा में मारे गए प्रजापति, सोहराबुद्दीन और इशरत जहां के बारे में गरजकर कहा था कि इनके साथ क्या करना चाहिए. भीड़ ने एक स्वर में कहा: इन्हें मार डालो!
हत्या को सार्वजनिक तौर पर जायज ठहराने और उसके लिए जनभावना संगठित करने का पुरस्कार प्रधानमंत्री का पद हो सकता था, क्या उस समय हमें पता था? और क्या इन सब पर सोचते हुए राष्ट्र कवि की पंक्तियां याद नहीं आतीं: हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी?
कादिर ने सलमान तासीर को इसलिए मार डाला था क्योंकि उनकी नज़र में तासीर ने इस्लाम और मुहम्मद साहब की शान में गुस्ताखी की थी. तासीर का कसूर यह था उन्होंने पाकिस्तान के ईश-निंदा क़ानून की आलोचना की थी और एक ईसाई औरत आसिया बीबी के पक्ष में बात की थी जिस पर ईश निंदा का आरोप था.
पढ़ेंः संघ के कार्यक्रम में एक मंच पर जुटे डीजी वंजारा और मोहन भागवत
कादिर की इस भयंकर लोकप्रियता के बावजूद पाकिस्तान ने उसे न सिर्फ फांसी की सजा सुनाई बल्कि फांसी दे भी दी. इस सजा का हम सैद्धांतिक आधार पर विरोध कर सकते हैं, लेकिन इससे कम से कम यह जाहिर होता है कि पाकिस्तान अपने क़ानून के पालन को लेकर गंभीर है और अपराध को नतीजे तक पहुंचाता है. इसके पहले भी पाकिस्तान में कादिर की तरह के और लोगों को भी सजा दी गयी है.
कादिर के साथ पाकिस्तानी कानूनी तंत्र के व्यवहार और दारा सिंह के साथ भारतीय उच्चतम न्यायालय के बर्ताव की तुलना करें. दारा सिंह ने ओड़िसा में ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को सोते में जला कर मार डाला था.
उसका यकीन था कि वे लोगों को ईसाई बना रहे थे. जब सीबीआई ने दारा सिंह को इस जघन्य अपराध के लिए मौत की सजा देने की मांग की तो उच्चतम न्यायालय की न्यायामूर्ति पी सथाशिवम और बीएस चौहान की द्विसदस्यीय पीठ ने दारा सिंह के अपराध को इतना जघन्य मानने से इनकार कर दिया कि उसके चलते उसे फाँसी सुनाई जाए.
इसकी वजह जो बताई गई, वह अधिक चिंताजनक थी. पीठ ने कहा कि यह ठीक है कि दारा सिंह ने स्टेंस और उनेक बच्चों को ठंडे दिमाग से की गयी पूरी तैयारी के बाद मारा लेकिन यह हत्या दरअसल धर्म-परिवर्तन को लेकर उसके क्षोभ का परिणाम थी.
आगे इस पीठ ने धर्मांतरण की आलोचना करते हुए उसे अनुचित ठहराया. ऐसा करते हुए एक तरह से उसने यह कहा कि हत्या भले गलत है लेकिन उसका कारण मौजूद था, इसलिए दारा सिंह के प्रति नरमी दिखाई जानी चाहिए.
भारतीय उच्चतम न्यायालय की इस तर्क-पद्धति को अगर मानें तो मुमताज कादरी को भी फांसी नहीं होनी चाहिए थी. आखिर उसे भी रसूल के अपमान का एक जायज गुस्सा था और तासीर की हत्या सिर्फ इस गुस्से का नतीजा थी, वरना जाती तौर पर उसे तासीर से क्या अदावत थी! वह तो एक व्यापक सामाजिक क्षोभ को हत्या के जरिए जाहिर भर कर रहा था!
भारतीय क़ानून व्यवस्था और न्याय तंत्र का झुकाव हिंदू मन को समझने की ओर है, यह सिर्फ दारा सिंह के प्रति उसकी नरमी से जाहिर नहीं होता. एक मामले में फांसी न देना तो दूसरे मामले में फांसी देना: व्यापक जनभावना को फांसी से कम सजा संतुष्ट नहीं कर पाएगी, ऐसा कह कर ही अफजल गुरु को फांसी की सजा सुनाई गई.
पाकिस्तान की अदालत ने व्यापक जनभावना की परवाह नहीं की और वहां की सरकार ने भी इस जनभावना का सामना करने का जोखिम और साहस दिखाया. क्या अपने देश के बारे में यही कहा जा सकता है?
पढ़ेंः बंजारा के स्वागत में समर्थकों ने कहा भारत माता की जय
ताज्जुब नहीं कि भारत में बाबरी मस्जिद ध्वंस के लिए कौन जिम्मेदार थे, यह उस अपराध के अब चौथाई सदी बीतने पर भी तय नहीं किया जा सका, उन्हें सजा देने की बात तो दूर! हम सब ने आंखों से देखा, यानी उस अपराध के लिए व्यापक हिंसा को संगठित करने का अभियान, जिसका नेतृत्व लाल कृष्ण आडवाणी ने किया, जिन्हें बाद में नीतीश कुमार ने ‘स्टेट्समैन’ कहा और जिसमें प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष भागीदारी अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर आज के प्रधानमंत्री तक की थी.
हम जानते हैं कि इस अपराध के मुजरिमों को कभी नामजद भी नहीं किया जा सकेगा. वैसे ही जैसे मुंबई की मुस्लिम विरोधी हिंसा पर श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट को खोलने का साहस कोई न कर सका: मुसलमानों का ‘तुष्टीकरण’ करने वाली कांग्रेस पार्टी की सरकार ने भी नहीं.
दह्याजी गोबरजी वंजारा ने तो ‘राष्ट्र हित’ में कुछ राष्ट्र-विरोधियों की हत्या संगठित भर की थी! क्या इसके लिए उन्हें सजा मिलनी चाहिए? इसके लिए वे सात साल तक जेल में रहे, क्या इसका मुआवजा उन्हें नहीं मिलना चाहिए?
वंजारा ने जेल में रहते हुए कहा था कि उन्होंने तो सिर्फ राजनीतिक नेताओं की योजना और उनके आदेश पर अमल भर किया था. उनकी इस बात को हवा में उड़ा दिया गया.
अब उनके गुजरात पहुंचने पर अहमदाबाद के टाउन हॉल में उनके सार्वजनिक अभिनंदन की खबर से कुछ लोगों को कादिर के लिए उमड़ी पाकिस्तानी जनता की याद आ गई, तो क्या गलत है?
वंजारा के स्वागत से हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए. कुछ दिन पहले दिल्ली में छात्र नेता कन्हैया पर हमला करने वाले भारतीय जनता पार्टी के विधायक और दूसरे वकीलों का भारत की राजधानी में सार्वजनिक अभिनंदन हो चुका है.
पढ़ेंः तीन राष्ट्रपति खारिज कर चुके हैं गुजकोक विधेयक
उसके पहले मुज्ज़फरनगर में हिंसा फैलाने के आरोप में गिरफ्तार नेताओं की रिहाई पर भी सार्वजनिक अभिनंदन देखा जा चुका है. बाद में वे केंद्र में मंत्री भी बना दिए गए.
वंजारा पर जब फर्जी मुठभेड़ के नाम पर हत्याओं का मुकदमा चल रहा था तो गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने जनसभा में मारे गए प्रजापति, सोहराबुद्दीन और इशरत जहां के बारे में गरजकर कहा था कि इनके साथ क्या करना चाहिए. भीड़ ने एक स्वर में कहा: इन्हें मार डालो!
हत्या को सार्वजनिक तौर पर जायज ठहराने और उसके लिए जनभावना संगठित करने का पुरस्कार प्रधानमंत्री का पद हो सकता था, क्या उस समय हमें पता था? और क्या इन सब पर सोचते हुए राष्ट्र कवि की पंक्तियां याद नहीं आतीं: हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी?