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October 10, 2017

Hindi Article: Communalism and Freedom of Expression


सम्प्रदायवाद कुचल रहा है अभिव्यक्ति के प्रजातांत्रिक अधिकार को राम पुनियानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, भारत के स्वाधीनता संग्राम के मूलभूत मूल्यों में से एक थी। अंग्रेजों ने असहमति के स्वर को कुचलने का भरसक प्रयास किया परंतु स्वाधीनता सेनानियों को यह एहसास था कि देश में प्रजातांत्रिक संस्कृति के जड़ पकड़ने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतत्रंता अपरिहार्य है। स्वाधीनता संग्राम के कई नेताओं को निडरता से अपनी बात रखने की बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी। उन्हें ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों द्वारा हर तरह से प्रताड़ित किया गया। स्वाधीनता के बाद, हमारे संविधान में इस तरह के प्रावधान किए गए जिनसे अभिव्यक्ति की आज़ादी को कोई सरकार समाप्त न कर सके। आज हम यह देख रहे हैं कि सत्ताधारी पार्टी और उसका सम्प्रदायवादी राष्ट्रवाद, असहमति के स्वरों को कुचलने पर आमादा है। यह सिर्फ मीडिया पर नियंत्रण स्थापित कर और लेखकों की आज़ादी को समाप्त नहीं किया जा रहा है। सत्ताधारी दल ने मीडिया के एक तबके पर सम्पूर्ण नियंत्रण हासिल कर लिया है और वह स्वतंत्र सोच का गला घोंटने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है। इन प्रयासों का एक प्रमुख व अत्यंत डरावना पक्ष है असहमत व्यक्तियों की हत्या। हम सब जानते हैं कि कब-जब राज्य, मीडिया पर सम्पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लेता है जैसा कि आपातकाल के दौरान हुआ था। उस समय अखबारों में छपने वाली खबरों का सेंसर किया जाता था और तत्कालीन एकाधिकारवादी सरकार ने कई समाचारपत्र समूहों पर छापे डलवाए थे। आज जो हो रहा है, वह उससे थोड़ा अलग है। आज बिग ब्रदर तो हम पर नज़र रख ही रहा है, साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद से प्रेरित तत्व, कानून को अपने हाथों में ले रहे हैं क्योंकि उन्हें पता है कि शासक दल और राज्य उनके साथ है और वे ऐसे विचारकों और कार्यकर्ताओं, जिनका विचारधारात्मक स्तर पर विरोध करना उनके लिए संभव नहीं है, की जान लेकर भी बच निकल सकते हैं। धार्मिक राष्ट्रवाद में विश्वास रखने वाली सभी विचारधाराएं, मूलतः घोर असहिष्णु होती हैं और विभिन्न सम्प्रदायों के बीच की खाई को चैड़ा करने के लिए सड़कों पर हिंसा करने से नहीं सकुचातीं। भारत की तरह, आज पड़ोसी बांग्लादेश में भी इस्लामिक राष्ट्रवाद से प्रेरित तत्व ब्लॉग लेखकों पर हमले कर रहे हैं और उनकी हत्याएं भी। पिछले कुछ वर्षों में हमने ऐसी अनेक त्रासद घटनाएं देखीं, जिनमें उन लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं, जो तार्किकता में विश्वास रखते थे, जो उन मूल्यों के विरोधी थे जो जाति व्यवस्था का पोषण करते हैं और जो हिन्दू धर्म के नाम पर राजनीति के विरूद्ध आवाज़ उठा रहे थे - को मौत के घाट उतार दिया गया। इसकी शुरूआती नरेन्द्र दाभोलकर से हुई। दाभोलकर सक्रिय रूप से तार्किकतावादी सोच को प्रोत्साहन देने के लिए काम कर रहे थे। उन्होंने महाराष्ट्र में अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति का गठन किया था। इस समिति के सदस्य गांव-गांव जाकर उस विचारधारा की जड़ों पर प्रहार करते थे जो धर्म के नाम पर राष्ट्रवाद की पैरोकार थी। उन्हें ‘सनातन प्रभात’ नामक एक समाचारपत्र से धमकियां मिली थीं। यह समाचारपत्र, हिन्दू राष्ट्र का समर्थक और पोषक है। गोविंद पंसारे एक साधु प्रवृत्ति के अत्यंत समर्पित व्यक्ति थे जो सतत रूप से मानवाधिकारों की रक्षा और तार्किक सोच को बढ़ावा देने के लिए कार्यरत थे। साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद के वे घोर आलोचक थे। उन्होंने शिवाजी के जीवन और कार्यों को एक अलग स्वरूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि शिवाजी एक मानवतावादी शासक थे जो अपने सभी प्रजाजनों के साथ समान व्यवहार करते थे, चाहे वे किसी भी धर्म के क्यों न हों। उनके प्रशासनिक तंत्र में हिन्दू और मुसलमान दोनों शामिल थे। पंसारे ने हेमंत करकरे की हत्या को संदेहास्पद बताया था। करकरे ने मालेगांव बम धमाकों सहित कुछ अन्य आतंकी घटनाओं के पीछे संघ परिवार का हाथ होने के प्रमाण जुटाए थे। एमएम कलबुर्गी एक तार्किकतावादी विद्वान थे और ब्राह्मणवादी मूल्यों के खिलाफ थे। वे बसवन्ना के सामाजिक समता के संदेश के पैरोकार थे और यह मानते थे कि लिंगायतों को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाना चाहिए ताकि वे ब्राह्मणवाद के वर्चस्व वाले हिन्दू धर्म के चंगुल से मुक्त हो सकें। इसी श्रंखला में गौरी लंकेश की त्रासद हत्या हुई। वे एक निडर पत्रकार थीं और ज़मीनी स्तर पर हिन्दू राष्ट्रवाद का विरोध करती थीं। वे धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए हमेशा खड़ी हुईं। उन्होंने बाबा बुधनगिरी और ईदगाह मैदान के मुद्दे पर साम्प्रदायिकता फैलाने का डट कर विरोध किया। उनकी गतिविधियों और लेखन से साम्प्रदायिक तत्व घबरा गए। चूंकि वे कन्नड़ में लिखती थीं अतः उनके लेखन का व्यापक प्रभाव जनसमान्य पर पड़ रहा था। गौरी लंकेश, धार्मिक राष्ट्रवादियों की राह का कांटा बन गई थीं। इन चारों को एक ही तरह से मारा गया। मोटरसाइकिल पर सवार हमलावरों ने इन चारों की गोली मारकर हत्या की। इन सभी हत्याओं की जांच जारी है परंतु उसके कोई ठोस परिणाम अब तक सामने नहीं आए हैं। सनातन संस्था - जो कि शासक दल की विचारधारा के नज़दीक है - के एक मामूली कार्यकर्ता के अतिरिक्त किसी की गिरफ्तारी नहीं की गई है। ये हत्याएं दरअसल देश में व्याप्त परिस्थितियों की ओर संकेत करती हैं। समाज में असहिष्णुता तेजी से बढ़ी है जिसके कारण पवित्र गाय के नाम पर मुसलमानों और दलितों पर हमले किए जा रहे हैं और उन्हें जान से मारा जा रहा है। मोहम्मद अखलाक और जुनैद खान की हत्या और ऊना में दलितों के साथ भयावह मारपीट, समाज में बढ़ती असहिष्णुता के द्योतक है। लगभग पिछले एक दशक से देश में असहिष्णुता बढ़ रही है परंतु पिछले तीन वर्षों में इसकी प्रकृति में बड़ा परिवर्तन आया है। राममंदिर और गाय के मुद्दों को केन्द्र में रखकर अन्य साम्प्रदायिक मुद्दों को भी उछाला जा रहा है। इसके साथ ही अंधश्रद्धा को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसी के चलते अनेक लब्धप्रतिष्ठित लेखकों, फिल्मी दुनिया से जुड़ी शख्सियतों और वैज्ञानिकों ने अपने पुरस्कार विरोध स्वरूप लौटा दिए। यह उनके साहस और सहिष्णु समाज के प्रति उनकी विचारधारात्मक प्रतिबद्धता का सबूत था। परंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इन रक्षकों को बदनाम करने में शासक दल ने कोई कसर नहीं छोड़ी। उनका यही कसूर था कि वे विघटनकारी राजनीति के कारण प्रताड़ित हो रहे व्यक्तियों और समुदायों के दुःख और चिंता को स्वर दे रहे थे। समाज का साम्प्रदायिकीकरण क्यों हो रहा है? हम इतने असहिष्णु क्यों होते जा रहे हैं? जो लोग प्रजातांत्रिक मूल्यों के पैरोकार हैं, उनकी जान क्यों ली जा रही है? जो लोग स्वाधीनता संग्राम और भारतीय संविधान के मूल्यों को बढ़ावा दे रहे हैं उन पर हमले क्यों हो रहे हैं? विचारधारा और असहिष्णुता व हत्याओं के परस्पर संबंध को समझने के लिए हमें कुछ पीछे मुड़कर देखना होगा। स्वाधीन भारत में वैचारिक कारणों से हत्या की सबसे पहली और सबसे प्रमुख घटना थी महात्मा गांधी की हत्या। उन्हें नाथूराम गोडसे ने मारा था और इस हत्या के पश्चात आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार पटेल ने लिखा, ‘‘जहां तक आरएसएस और हिन्दू महासभा का प्रश्न है... हमें प्राप्त रपटें यह पुष्टि करती हैं कि इन दोनों संस्थाओं, विशेषकर पहली (आरएसएस), की गतिविधियों के परिणामस्वरूप देश में ऐसा वातावरण बना जिसके चलते इतनी भयावह त्रासदी हो सकी’’ (सरदार पटेल का श्यामाप्रसाद मुखर्जी को पत्र, दिनांक जुलाई 18, 1948। ‘‘सरदार पटेल करस्पोंडेन्स’’ खंड 6, संपादक दुर्गादास)। अभिव्यक्ति की स्वंत्रता पर हमलों के पीछे कई कारण होते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने का एक तरीका वह है जो हमने सन 1975 के आपातकाल में देखा। उस समय देश में बोलने की आज़ादी पर रोक लगाने में राज्य की सबसे बड़ी भूमिका थी। इन दिनों जो हो रहा है उसमें राज्य की भूमिका तो है ही, परंतु इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि साम्प्रदायिकता के ज़हर से लबरेज़ लोग अपने स्तर पर साम्प्रदायिकता के विरोधियों की आवाज़ को कुचल रहे हैं, उन पर जानलेवा हमले कर रहे हैं। आज न केवल धर्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा का वातावरण बन गया है बल्कि उनके प्रति भी जो प्रजातांत्रिक और बहुवादी मूल्यों के हामी हैं। किसी भी प्रजातांत्रिक समाज के लिए यह आवश्यक है कि वहां सभी लोगों को अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार हो और सभी के विचारों पर स्वस्थ्य बहस के लिए जगह हो। साम्प्रदायिक विचारधाराएं, प्रजातंत्र की विरोधी हैं और उनकी बढ़ती ताकत के चलते देश में असहिष्णुता में भयावह वृद्धि हुई है। साम्प्रदायिकता के खिलाफ लामबंद होकर लड़ना ही प्रजातांत्रिक स्वतंत्रता को बनाए रखने का एकमात्र तरीका है। (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)