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July 06, 2017

गाय के नाम पर / In the Name of the Come - an artcle in Hindi by Ram Puniyani

गाय के नाम पर

- राम पुनियानी

दिल्ली के बाहरी इलाके में एक ट्रेन में जुन्नैद की पीट-पीटकर हत्या (जून 2017) की लोमहर्षक घटना से समाज के एक बड़े वर्ग का धैर्य का बांध टूट गया है। देश के विभिन्न भागों में बड़ी संख्या में लोग इस घटना के विरोध में स्वमेव सड़कों पर उतर आए। उनका नारा था ‘‘नॉट इन माई नेम’’ (मेरे नाम पर नहीं)। कुछ लोगों ने व्यथा और पछतावे के इस प्रकटीकरण की आलोचना की परंतु इसने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान खींचा। नतीजे में, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, जो इस मुद्दे पर मौनव्रत धारण किए हुए थे, को भी आगे आकर यह कहना पड़ा कि ‘‘गाय के नाम पर हिंसा स्वीकार्य नहीं है’’ और ‘‘महात्मा गांधी इसका कभी समर्थन नहीं करते’’। इस वक्तव्य का क्या असर पड़ा यह कहना मुश्किल है परंतु यह एक तथ्य है कि प्रधानमंत्री के इस मुद्दे पर अपना मौन तोड़ने के कुछ ही घंटों बाद, झारखंड में दो मुसलमानों की हत्या कर दी गई।

प्रधानमंत्री ने गाय के नाम पर हिंसा के संबंध में अपना पिछला वक्तव्य अक्टूबर 2015 में मोहम्मद अखलाक की हत्या के बाद दिया था। उन्होंने घटना के लगभग दो सप्ताह बाद अपना मुंह खोला था। यह बयान भी खोखला था और इसका ‘गौआतंकवाद’ पर कोई असर नहीं पड़ा। इसका अर्थ यह है कि या तो प्रधानमंत्री मोदी का गोरक्षक गुंडों पर कोई नियंत्रण नहीं है या फिर वे गोरक्षक यह जानते हैं कि प्रधानमंत्री केवल औपचारिकतावश यह सब कह रहे हैं और उन्हें अपनी बर्बर कार्यवाहियां करते रहने की छूट है।

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी सरकार का बचाव करते हुए कहा कि भीड़ द्वारा लोगों की हत्याओं की घटनाएं, पिछली सरकार के कार्यकाल (2011-2013) में कहीं अधिक संख्या में हुईं। यह सफेद झूठ है। इंडियास्पेन्ड द्वारा मीडिया रपटों के आधार पर इकट्ठा किए गए आंकड़ों के अनुसार, ‘‘2010 से लेकर 2017 तक की अवधि में गाय के मुद्दे पर हुई हिंसा की घटनाओं में से 51 प्रतिशत में मुसलमान निशाने पर थे। इन दौरान घटी 63 घटनाओं में जो 28 व्यक्ति मारे गए, उनमें से 86 प्रतिशत मुसलमान थे। इन हमलों में से 97 प्रतिशत, नरेन्द्र मोदी की सरकार के मई 2014 में सत्ता में आने के बाद हुए। लगभग आधी (63 में से 32) घटनाएं भाजपा-शासित प्रदेशों में हुईं। यह विश्लेषण 25 जून, 2017 तक हुई घटनाओं पर आधारित है।’’ श्री शाह कितनी आसानी से झूठ बोलते हैं!

सच यह है कि लोगों में व्याप्त गुस्सा और असंतोष भी कभी-कभी इस तरह की घटनाओं को जन्म देता है, जैसा कि कश्मीर में अय्यूब पंडित के मामले में हुआ। भीड़ का पागल हो जाना और अपना आपा खो बैठना हर स्थिति में निंदनीय है। परंतु जहां तक गाय के नाम पर लोगों की जान लेने का प्रश्न है, उसके पीछे कई कारक हैं। हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति का बोलबाला बढ़ने के साथ, मुसलमानों के अलावा, दलितों को भी गाय के नाम पर हिंसा का शिकार बनाया गया। गोहाना में एक मरी हुई गाय की खाल उतार रहे दलितों की जान ले ली गई। गोरक्षकों द्वारा लगातार दिए जा रहे भड़काऊ वक्तव्यों से इस मुद्दे पर समाज का ध्रुवीकरण हो रहा है और हिंसा बढ़ रही है। गोहत्या को प्रतिबंधित करने वाले कानून इस देश में पहले से लागू थे परंतु भाजपा के सत्ता में आने के बाद से इन कानूनों को बहुत कड़ा बना दिया गया है और गोहत्या करने वालों के साथ-साथ, बीफ का भक्षण करने वाले भी निशाने पर आ गए हैं। हिन्दू राष्ट्र की पहली प्रयोगशाला गुजरात में तो मांसाहारी भोजन करने वालों को ही नीची निगाहों से देखा जाने लगा है। ‘‘पवित्र गौमाता’’ की अवधारणा को सरकार के सहयोग से लोगों पर लादा जा रहा है।

अखलाक की हत्या के बाद केन्द्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने कहा था कि यह हत्या मात्र एक दुर्घटना है। जब इस हत्या का एक आरोपी किसी बीमारी के कारण जेल में मर गया, तब महेश शर्मा ने उसके शव पर तिरंगा रखा। भाजपा के एक अन्य नेता संगीत सोम ने यह धमकी दी कि अगर अखलाक की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किए गए लोगों को सज़ा मिली, तो इसका उपयुक्त जवाब दिया जाएगा।

गाय के नाम पर हिंसा का शिकार वे लोग बन रहे हैं जिन पर गोवध करने, गायों को वध के लिए ले जाने या बीफ खाने का संदेह होता है। इस तरह की हिंसा का मुख्य शिकार मुसलमान हैं, यद्यपि दलित भी इससे पीड़ित हैं। मुसलमानों को गोमांस का भक्षण करने वाले क्रूर समुदाय के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह कहा जाता है कि वे हिन्दुओं की भावनाओं का सम्मान नहीं करना चाहते। स्थितियां इतनी खराब हो गई हैं कि विधिशास्त्र के इस मान्य सिद्धांत कि ‘‘कोई भी व्यक्ति तब तक निर्दोष है, जब तक वह दोषी सिद्ध न हो जाए’’ को उसके सिर पर खड़ा कर दिया गया है। अब तो यह माना जाता है कि ‘‘कोई व्यक्ति तब तक दोषी है, जब तक कि वह निर्दोष सिद्ध न हो जाए’’। और यह नया सिद्धांत मुख्यतः मुसलमानों और दलितों पर लागू किया जा रहा है। इस तरह की हत्याओं को ‘हिन्दू धर्म की रक्षा’ के नाम पर औचित्यपूर्ण ठहराया जा रहा है और उन्हें समाज की मौन स्वीकृति प्राप्त है। गाय जैसे सीधे-साधे पशु के नाम पर भयावह हिंसा की जा रही है। भाजपा के एक प्रवक्ता ने यह दावा किया कि गांधीजी गोहत्या पर प्रतिबंध के हामी थे। सच यह है कि गांधीजी गोहत्या पर प्रतिबंध के खिलाफ थे क्योंकि उनका मानना था कि यह देश उन लोगों का भी है, जो बीफ खाते हैं।

भीड़ द्वारा लोगों की पीट-पीटकर हत्याएं, केवल कानून और व्यवस्था की समस्या नहीं है। दरअसल, ये हिन्दू राष्ट्रवादियों के प्रचार का नतीजा है। वे लगातार यह दुष्प्रचार करते आए हैं कि चूंकि गाय हिन्दुओं के लिए पवित्र है इसलिए मुसलमान उसे मारकर खाना चाहते हैं। यह मात्र संयोग नहीं है कि इस तरह की घटनाओं की संख्या में मोदी के सत्ता में आने के बाद से अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। मोदी ने पिंक रेव्यूलेशन की बात कही और उन्होंने यह भी कहा कि राणाप्रताप इसलिए महान थे क्योंकि उन्होंने गोरक्षा के लिए अपने जीवन की बलि दे दी। गाय के नाम पर मुसलमानों के दानवीकरण के पीछे एक विशिष्ट सामाजिक मनोविज्ञान की स्थापना करने का प्रयास है। यही मनोविज्ञान इस तरह की घटनाओं को जन्म दे रहा है। जाहिर है कि इससे मोदी सरकार के ‘सुशासन’ के दावे की हवा निकल गई है।
अय्यूब पंडित की हत्या भी अत्यंत दुःखद और निंदनीय है। हमें कश्मीर के समाज के मनोविज्ञान को समझने और उसे बदलने की ज़रूरत है। देश भर में जिस तरह गाय के मुद्दे को लेकर समाज का ध्रुवीकरण किया जा रहा है, धार्मिक अल्पसंख्यकों में जिस तरह की असुरक्षा का भाव व्याप्त हो रहा है और जिस तरह गाय के नाम पर हत्याएं हो रही हैं, उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि मोदी के ‘अच्छे दिन’ अभी बहुत, बहुत दूर हैं। (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)