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December 11, 2020

Hindi Article-From Babri Mosque to Ram Temple

बाबरी मस्जिद से राम मंदिर तक -राम पुनियानी सन 2020 का छह दिसंबर, सन 1992 से अब तक के छह दिसंबरों से कई अर्थों में भिन्न था. आज से 28 साल पहले, 20 दिसंबर को बाबरी मस्जिद ढहा दी गई थी. तब से लेकर पिछले साल तक अयोध्या में इस दिन दो अलग-अलग प्रकार के कार्यक्रम हुआ करते थे. हिंदुत्व संगठन इस दिन ‘शौर्य दिवस’ मनाते थे. उनका मानना है इस दिन हिन्दुओं ने अपने शौर्य का प्रदर्शन करते हुए भारत की गुलामी की एक निशानी को धूल में मिला दिया था. वे यह मानते हैं कि मुस्लिम बादशाहों का शासनकाल, हिन्दुओं की गुलामी का दौर था क्योंकि मुसलमान विदेशी हैं. इस आख्यान को इन पूरी तरह से औचित्यपूर्ण आधारों पर चुनौती दी जाती है: एक, मुस्लिम शासकों के हिन्दू राजाओं से गठबंधन थे; दो, उस समय देश की अधिकांश जनता सीधे शासक के अधीन न होकर अपने-अपने इलाकों के ज़मींदारों के अधीन थी और तीन, मुस्लिम बादशाहों के शासन का आधार धर्म नहीं था. यह मात्र संयोग था कि वे इस्लाम धर्म का पालन करते थे. परन्तु मुस्लिम बादशाहों के शासनकाल के हिन्दुओं की गुलामी का दौर होने का आख्यान देश की सामूहिक चेतना में गहरे तक बिठा दिया गया. इसके लिए ‘सहमति के निर्माण’ की वही पद्धति अपनाई गयी, जिसकी बात नोएम चोमस्की करते हैं. दुर्भाग्यवश, इस सोच का खंडन करने के समुचित प्रयास नहीं हुए. इस दिन को अयोध्या में मुसलमानों द्वारा यौमेगम (शोक दिवस) के रूप में मनाया जाता था. मुसलमान अपने घरों पर काले झंडे फहराते थे और अपनी दुकानों आदि को बंद रखते थे. उनकी पीड़ा यह थी कि उनके आराधना स्थल को उनकी आँखों के सामने ज़मींदोज़ कर दिया गया और उनके खिलाफ न सिर्फ अयोध्या वरन पूरे देश में हिंसा की गयी. बाबरी काण्ड के बाद देश में सांप्रदायिक हिंसा में तेज़ी से बढोत्तरी हुई और इसके नतीजे में मुसलमान अपने मोहल्लों में सिमटने लगे और समाज के हाशिये पर ढकेले जाने लगे. यद्यपि हमारा देश कहने को धर्मनिरपेक्ष और प्रजातान्त्रिक था परन्तु मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति अन्य समुदायों की तुलना में काफी ख़राब थी और होती जा रही थी. देश में आरएसएस मार्का राजनीति का बोलबाला बढ़ने लगा और कोई भी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टी मुसलमानों को सुरक्षा और समाज में गरिमापूर्ण स्थान नहीं दिलवा सकी. मानवाधिकार कार्यकर्ता 20 दिसंबर को एक ऐसे दिन के रूप में याद करते हैं जिस दिन संविधान के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर गहरी चोट लगी और विघटनकारी ताकतें अपने इरादों में सफल हो गईं. अन्यों की तरह उन्हें भी यह अच्छी तरह से पता है कि बाबर द्वारा राममंदिर को तोड़ कर उस स्थान पर बाबरी मस्जिद बनाने और भगवान राम के उसी स्थान पर पैदा होने के कोई प्रमाण नहीं हैं. अदालतों का काम है राज्य द्वारा नागरिकों को उनके अधिकारों से वंचित किये जाने को रोकना. परन्तु अदालतें असहाय बनीं रहीं और सांप्रदायिक ताकतों - जिनकी ताकत बढ़ती जा रही थी और जो अंततः सत्ता में आ गईं - की इच्छा के अनुरूप फैसले सुनातीं रहीं. यद्यपि न्यायपालिका इस मामले में न्याय नहीं कर सकी तथापि उसे भी यह स्वीकार करना पड़ा कि दिसंबर 1949 में बाबरी मस्जिद में राम लला की मूर्तियों की स्थापना आपराधिक कृत्य था. सभी को पता है कि प्रधानमंत्री नेहरु के मूर्तियों को वहां से हटाने के निर्देश की अयोध्या के तत्कालीन जिला कलेक्टर ने अवहेलना की और बाद में वही कलेक्टर महोदय जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी का पूर्व अवतार) के उम्मीदवार बतौर लोकसभा में पहुंचे. उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्दवल्लभ पन्त ने इस अपराध को गंभीरता से नहीं लिया. अदालतों ने यह भी स्वीकार किया कि बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना भी आपराधिक कृत्य था. उत्तरप्रदेश की तत्कालीन सरकार की यह ज़िम्मेदारी थी कि वह अयोध्या में कानून और व्यवस्था बनाए रखती. परन्तु उस समय जो सज्जन मुख्यमंत्री के पद पर विराजमान थे उन्होंने कहा कि उन्हें गर्व है कि उन्होंने मस्जिद की रक्षा नहीं की. तत्कालीन केंद्र सरकार भी गहरी निद्रा में डूबी रही. जब इस 450 साल पुरानी पुरातात्विक महत्व की इमारत को गिराया जा रहा था उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव पूजा के कमरे में बंद थे. इस घटना की जांच के लिए नियुक्त लिब्रहान आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मस्जिद को एक सोची-समझी साजिश के अंतर्गत गिराया गया और इस साजिश को अंजाम देने में भाजपा के अलग-अलग नेताओं ने उनके लिए निर्धारित भूमिकाएं बखूबी निभाईं. जिस समय मस्जिद गिराई जा रही थी उस समय वहां मंच से नारे लग रहे थे: “एक धक्का और दो, बाबरी मस्जिद तोड़ दो” और “ये तो केवल झांकी है, काशी मथुरा बाकी है’. मस्जिद के गिर जाने के बाद मंच पर खुशियाँ मनाईं गईं. क्या मानवाधिकार कार्यकर्ता यह भूल सकते हैं कि इस घटना को अपराध की संज्ञा तो दी गयी परन्तु इसके अपराधियों को कोई सज़ा नहीं मिली. क्या वे यह भूल सकते हैं कि इस मामले में ‘जनआस्था’ को आधार बनाते हुए अदालतों ने फैसले सुनाये और कई अलग-अलग बहानों से अपराधियों को बरी कर दिया. अंततः अपराधियों को वह भूमि सौंप दी गयी जिस पर उन्होंने अनाधिकार कब्ज़ा किया था - उन लोगों को जिन्होंने इस धारणा का निर्माण किया था कि भगवान राम ठीक उसी स्थान पर जन्मे थे. इस पूरे मसले का एक और आयाम है, जिसे अक्सर नज़रअंदाज़ किया जाता है परन्तु जो हमें उस राजनीति के बारे में बहुत कुछ बताता है जिसके चलते बाबरी मस्जिद को गिराया गया. सवाल यह है कि मस्जिद को गिराने के लिए 6 दिसंबर को ही क्यों चुना गया? ऐसा कहा गया था कि अयोध्या में प्रतीकात्मक कारसेवा की जाएगी परन्तु जाहिर है कि असली योजना कुछ और ही थी. इस सांप्रदायिक परियोजना का उद्देश्य केवल मुसलमानों को हाशिये पर ढकेलना नहीं था. इसका उद्देश्य हिन्दू पवित्र ग्रंथों द्वारा स्थापित जातिगत और लैंगिक पदक्रम को पुनर्स्थापित करना भी था. सन 1980 के दशक में अम्बेडकर तेजी सी दबे-कुचलों और शोषितों की आशा के प्रतीक के रूप में उभर रहे थे. दलित आगे बढ़ रहे थे और अपने सामाजिक और प्रजातान्त्रिक अधिकारों को पाने के लिए संघर्षरत थे. वे सामाजिक समानता के लिए लड़ रहे थे. अम्बेडकर न्याय की इस लड़ाई के योद्धाओं के प्रेरणास्त्रोत थे. उसी दौरान मंडल आयोग की सिफारिशों को स्वीकार कर लागू किया गया था और बाबासाहेब को मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया था. इस लडाई को कमज़ोर करना, अम्बेडकर को कमज़ोर करना, भी सांप्रदायिक ताकतों का एक महत्वपूर्ण एजेंडा था. छह दिसंबर का चुनाव, संघ परिवार की सोशल इंजीनियरिंग का हिस्सा था. वे चाहते थे कि दलितों को उनकी हिन्दू पहचान की याद दिलाकर मुसलमानों से भिड़ा दिया जाए. बाबरी मस्जिद को गिरा कर दलितों की हिन्दू पहचान को मजबूती दी गयी और उनकी तरह के एक अन्य कमज़ोर तबके - मुसलमानों - से लड़ा कर उनमें यह भ्रम पैदा किया गया कि उनका ‘सशक्तिकरण’ हो गया है. कुल मिलकर, एक तीर से कई निशाने साधे गए. छह दिसंबर 2020 को अयोध्या के मुसलमानों ने शोक दिवस नहीं मनाया. वे देख रहे हैं कि मस्जिद के मलबे पर राममंदिर की तामीर हो रही है. बकौल ग़ालिब, ‘दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना’. उनका दर्द ही उनकी दवा बन गया है. जहाँ तक हिन्दू समूहों का सवाल है, प्रजातंत्र की रक्षा करने वाले तंत्र की विफलता से उनका ‘शौर्य’ सफल हो गया है. अतः अब इस दिन को उत्सव की रूप में मनाने की ज़रुरत नहीं रह गई है. अब वे लवजिहाद, गौमांस आदि पर ज्यादा फोकस कर सकते हैं. आखिर उन्हें अपना एजेंडा आगे तो बढ़ाना ही है. (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)