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December 05, 2019

Hindi Article-Glorifying Godse: Undermining Gandhi


गोडसे का महिमामंडन और गांधी का कद छोटा करने की दक्षिणपंथी कवायद -राम पुनियानी हर राष्ट्रवाद अपने ‘इतिहास’ का निर्माण करता है. जाने-माने इतिहासविद् एरिक उब्सबान के अनुसार, “राष्ट्रवाद के लिए इतिहास वही है, जो गंजेड़ी के लिए गांजा”. इसमें हम यह जोड़ सकते हैं कि हर राष्ट्रवाद अपनी विचारधारा के अनुरूप नायकों का सृजन करता है. जाहिर है कि इस प्रक्रिया में उसे उन नायकों का कद छोटा करना पड़ता है, जो उसके ‘नायकों’ के महिमामंडन के रास्ते में आते हैं. इस प्रकार, दो समानांतर प्रक्रियाएं चलती हैं. पहली, अपने नायकों का प्रशस्तिगान और दूसरी, अन्य नायकों पर कीचड़ उछालना. ठीक यही गोडसे और गांधी के मामले में हो रहा है. गोडसे को महान बताया जा रहा है और गांधी के बारे में नकारात्मक बातें कही जा रही हैं. समय-समय पर गोडसे के मंदिरों के निर्माण की मांग उठती रही है और उसके नाम के आगे सम्मानजनक पदवियां जोड़ी जाती हैं. मालेगांव आतंकी हमले में आरोपी प्रज्ञा ठाकुर, जो अब सांसद हैं, यह दावा करती रही हैं कि गोडसे देशभक्त था और हमेशा रहेगा. गोडसे के गुरू सावरकर का चित्र संसद भवन में लगाया जा चुका है और अब यह मांग उठ रही है कि उन्हें भारत रत्न से नवाजा जाए. राहुल गांधी ने अपने एक वक्तव्य में बिल्कुल ठीक ही कहा है कि गोडसे की प्रशंसा, भाजपा की नफरत की सियासत को प्रतिबिंबित करती है. इसके साथ ही, गांधी, जिनकी हत्या गोडसे ने की थी, के बारे में नकारात्मक और झूठा दुष्प्रचार किया जा रहा है. यह कोशिश की जा रही है कि इतिहास से इस तथ्य को ही गायब कर दिया जाए कि गोडसे, गांधी का हत्यारा था. कई पाठ्यपुस्तकों में यह बताया ही नहीं गया है कि गांधी की मृत्यु कैसे हुई थी. यहां तक कि, जैसा कि गुजरात में नवीं कक्षा की परीक्षा में पूछे गए एक प्रश्न से जाहिर है, यह प्रचार भी किया जा रहा है कि महात्मा गांधी ने आत्महत्या की थी. यह भी कहा जा रहा है कि गांधीजी की हत्या इसलिए हुई क्योंकि वे मुसलमानों का तुष्टिकरण कर रहे थे, उनके कारण भारत का विभाजन हुआ था, उनके दबाव के चलते भारत को 55 करोड़ रूपये पाकिस्तान को देने पड़े थे और वे हिन्दू विरोधी व मुस्लिम परस्त थे. साध्वी प्रज्ञा पहले तो गोडसे को देशभक्त बताती हैं और फिर अपनी पार्टी की नाक बचाने के लिए माफी मांग लेती हैं. गांधी की छवि को धूमिल करने के लिए अंबेडकर द्वारा महात्मा गांधी की आलोचना को बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया में प्रकाशित और प्रसारित किया जा रहा है. व्हाट्सएप ग्रुपों में गांधी के बारे में अंबेडकर के उद्धरणों को संदर्भ से हटाकर प्रचारित किया जा रहा है. यह सारी कवायद एक ओर गांधी को बदनाम करने तो दूसरी ओर गोडसे को एक महान व्यक्तित्व सिद्ध करने के लिए की जा रही है. इसका उद्देश्य गोडसे द्वारा गांधी की हत्या को औचित्यपूर्ण सिद्ध करना है. गोडसे ने अपने राजनैतिक जीवन की शुरूआत आरएसएस से की थी और बाद में वह सावरकर के नेतृत्व वाली हिन्दू महासभा से जुड़ गया था. सावरकर, हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा के शीर्ष चिंतक थे. हिन्दुत्ववादी तत्व, गांधी को बदनाम करने के लिए अन्य राष्ट्रीय नेताओं के साथ उनके मतभेदों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत कर रहे हैं. पृथक मताधिकार के बारे में गांधी के विचारों और पूना पैक्ट का यह दिखाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है कि अंबेडकर, गांधी के धुर विरोधी थे. उद्देशा यह बताना है कि गोडसे उन कई व्यक्तियों में से एक था जो महात्मा गांधी से सहमत नहीं थे. गांधी के अंबेडकर से मतभेद जरूर थे परंतु ये मतभेद रणनीति को लेकर थे. मूलभूत मुद्दों जैसे प्रजातंत्र, स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व के मूल्यों के संबंध में दोनों नेता एकमत थे. गांधी ने अछूत प्रथा के निवारण के लिए गंभीर और सतत प्रयास किए. वे पृथक मताधिकार के विरोधी थे क्योंकि उनकी मान्यता थी कि पृथक मताधिकार की व्यवस्था से औपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन कमजोर पड़ेगा. इसकी जगह वे समुचित संख्या में केन्द्रीय और राज्य विधानमंडलों के निर्वाचन क्षेत्रों को आरक्षित घोषित करने के हामी थे. उन्हें इस बात का पूरा एहसास था कि औपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के नेता के रूप में उनकी यह जिम्मेदारी है कि वे विविध पहचानों वाले सभी भारतीयों को एकसाथ लेकर आगे बढ़ें. वे देश को स्वतंत्र करवाने के लिए संघर्ष कर रहे थे परंतु उनके लिए साधन भी उतने ही महत्वपूर्ण थे जितना कि साध्य. यही कारण है कि भगतसिंह और उनके साथियों के प्रति सम्मान का भाव रखते हुए भी उन्होंने एक सीमा के बाद उनके मृत्युदंड को रद्द करवाने की कोशिश नहीं की. महान राष्ट्रवादी भगतसिंह स्वयं भी नहीं चाहते थे कि सरकार से उनकी फांसी की सजा माफ करने की याचना की जाए. हमारा स्वाधीनता संग्राम पूर्णतः प्रजातांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित था. गांधीजी ने औपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन को एक अत्यंत शक्तिशाली जनांदोलन की शक्ल दी. फिर एक ऐसा समय भी आया जब कांग्रेस ने ऐसी रणनीतियां अपनाई जो गांधी की रणनीति से पूरी तरह मेल नहीं खाती थीं. स्वतंत्रता के ठीक पहले के काल में नेहरू, पटेल और अन्य बड़े नेताओं ने कई ऐसे निर्णय लिए जो गांधीजी को ठीक नहीं लगते थे. यद्यपि गांधी कांग्रेस के सर्वमान्य शीर्षतम नेता थे परंतु नेहरू और पटेल जैसे उनके कई चेलों ने अपने गुरू से अलग रणनीति अपनाई. यहां तक कि गांधीजी को कहना पड़ा कि “वर्किंग कमेटी में मेरी आवाज का कोई वजन ही नहीं है. कुछ ऐसी चीज़ें हो रही हैं जो मुझे पसंद नहीं हैं परंतु मैं कुछ कह भी नहीं सकता”. इस प्रकार, यद्यपि गांधी स्वाधीनता आंदोलन के सबसे प्रभावशाली नेता थे परंतु वे तानाशाह नहीं थे. यह इस बात से जाहिर है कि स्वाधीनता आंदोलन की दिशा और उसके नेताओं की रणनीतियां हमेशा गांधी की इच्छा से मेल नहीं खाती थीं. गोडसे को सही सिद्ध करने के लिए कांग्रेस के बड़े नेताओं और गांधीजी के बीच छोटे-मोटे मतभेदों और असहमतियों का जमकर प्रचार किया जा रहा है. असहमति किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था और आंदोलन की आत्मा होती है. गोडसे-सावरकर एंड कंपनी के गांधीजी से मूलभूत मतभेद थे. गांधीजी की राष्ट्रवाद की परिकल्पना भगवा ब्रिगेड के राष्ट्रवाद से एकदम भिन्न थी. गांधी, अंबेडकर, नेहरू और पटेल एक ऐसे राष्ट्र के निर्माण का स्वप्न देख रहे थे जिसमें विविधता को खुले दिल से स्वीकार किया जाता और जो समावेशी और समतामूलक होता. सावरकर-गोडसे और उनके साथी हिन्दू राष्ट्रवादी जिस ‘सुनहरे अतीत’ की बात करते थे और करते हैं, वह जन्म-आधारित असमानता का पोषक था. वे अन्य धर्मों के विरोधी हैं और अपने धर्म और सोच को सब पर लादना चाहते हैं. दरअसल, प्रज्ञा ठाकुर जो कह रही हैं वही हिन्दू राष्ट्रवादी भी कहते हैं परंतु इतने खुले ढ़ग से नहीं. वे भी गोडसे की विचारधारा का बचाव करते हैं और उसे महिमामंडित भी. फर्क सिर्फ यह है कि प्रज्ञा ठाकुर मुंहफट हैं. (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)