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June 14, 2019

Hindi Article-Striving for Peace In Kashmir


कश्मीर: शांति की जुस्तजू -राम पुनियानी हालिया लोकसभा चुनाव में जबरदस्त बहुमत हासिल करने के बाद, मोदी सरकार मजबूती से देश पर शासन करने की स्थिति में है. ऐसा लगता है कि मोदी के बाद, सरकार में सबसे शक्तिशाली व्यक्ति गृहमंत्री अमित शाह हैं. ऐसा अपेक्षित है कि वे लम्बे समय से चली आ रही कश्मीर समस्या पर विशेष ध्यान देंगे. कश्मीर के विभिन्न सामाजिक समुदाय, जिनमें वहां व्याप्त अशांति और तनाव से पीड़ित व्यक्ति शामिल हैं, को उम्मीद है कि ऐसी कोई पहल की जाएगी, जिससे ‘धरती पर यह स्वर्ग’ सचमुच स्वर्ग बन सके. ऐसी खबरें हैं कि शाह कश्मीर में परिसीमन करवाना चाहते हैं. हम सब जानते हैं कि कश्मीर एक बहु-नस्लीय और बहु-धार्मिक राज्य है. घाटी में मुसलमानों का बहुमत है तो जम्मू में हिन्दुओं का. इनके अलावा, राज्य में बौद्धों और आदिवासियों की भी खासी आबादी है. अगर परिसीमन का उद्देश्य राज्य के निवासियों को बेहतर प्रतिनिधित्व उपलब्ध करवाना है तो इसके पहले, आमजनों की इस मुद्दे पर राय जाननी होगी. हमें आशा है कि परिसीमन की कवायद में कश्मीर के लोगों की इच्छा को अपेक्षित महत्व दिया जायेगा. परिसीमन का उद्देश्य किसी राजनैतिक दल विशेष को अधिक सीटें दिलवाना नहीं होना चाहिए. भाजपा के एजेंडे में संविधान के अनुच्छेद 370 और 35ए को रद्द करना शामिल है. अनुच्छेद 370 को कश्मीर के भारत में विलय के संधि के समय जोड़ा गया था. इस संधि के अनुसार, कश्मीर को रक्षा, संचार, मुद्रा और विदेशी मामलों को छोड़कर, अन्य सभी विषयों में पूर्ण स्वायत्तता दी जानी थी. अनुच्छेद 35ए, कश्मीर में गैर-कश्मीरियों के संपत्ति खरीदने के अधिकार से सम्बंधित है. ये दोनों अनुच्छेद, संविधान का भाग इसलिए बने क्योंकि कश्मीर, कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में भारत का हिस्सा बना था. कश्मीर पर कबायलियों के भेष में पाकिस्तानी सैनिकों के आक्रमण के बाद, वहां के शासक राजा हरिसिंह ने भारत से मदद मांगी. इसके पहले तक, हरीसिंह कश्मीर को एक स्वतंत्र देश बनाये रखने के पक्षधर थे. हमले के बाद, भारत के साथ हुई वार्ता के नतीजे में विलय की संधि हुई, जिसके बाद भारत की सेना ने पाकिस्तानी हमलावरों से मुकाबला करने के लिए मोर्चा सम्हाला. कश्मीर का भारत में अंतिम विलय, जनमत संग्रह द्वारा वहां के लोगों की राय जानने के बाद होना था. यह जनमत संग्रह कभी नहीं हुआ. शेर-ए-कश्मीर शेख अब्दुल्ला ने भारत में कश्मीर के विलय में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. वे कश्मीर के प्रधानमंत्री बने. भारत में साम्प्रदायिकता के उभार के संकेतों - जिनमें महात्मा गाँधी की हत्या और हिन्दू महासभा के नेता श्यामाप्रसाद मुख़र्जी की कश्मीर के भारत में तुरंत पूर्ण विलय की मांग शामिल थी - से शेख अब्दुल्ला व्यग्र और चिंतित हो गए. पाकिस्तान, अमरीका और चीन ने उनके साथ वार्ता के पहल कीं और उन पर उनकी प्रतिक्रिया के कारण, उन्हें 17 साल जेल में बिताने पड़े. यहीं से कश्मीर के लोगों का भारत से अलगाव शुरू हुआ. और यही अलगाव, कश्मीर समस्या की जड़ में है. शुरुआत में, कश्मीर में अतिवाद का आधार थी कश्मीरियत, जो कि वेदांत, बौद्ध और सूफी परम्पराओं का अद्भुत मिश्रण है. नूरुद्दीन नूरानी (नन्द ऋषि) और लाल देह, कश्मीरियत के प्रतिनिधि थे. कश्मीर में मनाया जाने वाला खीर भवानी उत्सव, जिसे सभी समुदाय मिलकर मनाते हैं, वहां के लोगों के परस्पर प्रेम को प्रतिबिंबित करता है. यह उत्सव, धार्मिक समुदायों से ऊपर उठकर मनाया जाता है. अल कायदा जैसे तत्वों की घुसपैठ के चलते, कश्मीरी अतिवादियों का साम्प्रदायिकीकरण हो गया. और यह सभी कश्मीरियों - विशेषकर पंडितों - के लिए एक बहुत बड़ी मुसीबत बन गया. पंडितों के निशाने पर आने से, कश्मीर की समावेशी परम्पराओं को गहरी चोट पहुंची. अतिवाद के कारण, 3.5 लाख पंडितों सहित बड़ी संख्या में मुसलमान भी घाटी से पलायन करने पर मजबूर हो गए. केंद्र में सरकारें बदलती रहीं परन्तु किसी ने भी पंडितों के लिए कुछ नहीं किया. जब हम अनुच्छेद 370 और 35ए की बात कर रहे हैं, तब हमें पंडितों की स्थिति पर भी बात करनी होगी. मोदी जी की पिछली सरकार ने कहा था कि पंडितों को घाटी में एक अलग क्षेत्र बनाकर पुनर्वसित किया जायेगा. परन्तु इस दिशा में कुछ भी नहीं किया गया. भाजपा इन दोनों अनुच्छेदों को हटाने की बात तो करती है परन्तु उसे महबूबा मुफ़्ती से हाथ मिलाने में कोई संकोच नहीं हुआ, जबकि यह सर्वज्ञात है कि महबूबा मुफ़्ती, अलगाववादियों की समर्थक हैं. राज्य में पीडीपी-भाजपा गठबंधन के शासन के दौरान, संवाद की कोई बात ही नहीं हुई. पिछले कुछ वर्षों में घाटी में अतिवाद और अलगाववाद बढ़ा है. पेलेट से घायल होने वालों की तादाद बढ़ी है. कश्मीरियों में व्याप्त अलगाव के भाव को कम करने के लिए कोई कदम नहीं उठाये गए. इस बात पर कोई विचार नहीं किया गया कि सैकड़ों युवक और युवतियां आखिर क्यों सड़कों पर उतर कर पत्थर फ़ेंक रहे हैं, जब कि उन्हें ऐसा करने के खतरनाक परिणामों की जानकारी है. क्या हम असंतोष और अलगाव को बन्दूक के गोलियों से समाप्त कर सकते हैं? अगर हम कश्मीर की स्थिति को उसकी समग्रता में देखें तो यह साफ़ हो जायेगा कि पहलवाननुमा राष्ट्रवादी नीतियों ने कश्मीर के सामाजिक तानेबाने को गहरी चोट पहुंचाई है और कश्मीरियों का दिल जीतना और मुश्किल हो गया है. नई मोदी सरकार को व्यापक जनादेश मिला है. वह इस समस्या को जड़ से मिटाने में सक्षम है. सबसे ज़रूरी है कश्मीरियों में अलगाव के भाव को समाप्त करना, जो इस समस्या का मूल है. कश्मीर के लोग कई तरह की हिंसा के शिकार रहे हैं. उनके घावों पर मरहम लगाना सबसे ज़रूरी है. हमें प्रजातान्त्रिक प्रक्रिया अपनानी होगी और मानवाधिकारों की रक्षा करनी होगी. श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बिलकुल ठीक कहा था कि कश्मीर मुद्दे को सुलझाने के लिए कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत का उपयोग किया जाना चाहिए. आज भी, यही सही रास्ता है. संसद में जबरदस्त बहुमत के चलते, सत्ताधारी दल को अपने कार्यक्रम लागू करने का पूर्ण अधिकार है परन्तु हम केवल आशा कर सकते हैं कि सरकार संवाद और प्रजातान्त्रिक प्रक्रिया के महत्व और उपादेयता को ध्यान में रखेगी. जिन लोगों को हमें राहत पहुंचानी हैं उनमें शामिल हैं वे लोग जिन्हें हिंसा का सामना करना पड़ा है, उनमें शामिल हैं कश्मीर की अर्द्ध-विधवाएं और उनमें शामिल हैं राज्य के वे आम नागरिक, जिन्हें नागरिक इलाकों में सेना की लम्बी और भारी मौजूदगी के कारण परेशानियाँ भोगनी पडीं हैं. अगर हमें कश्मीर घाटी में शांति और सद्भाव की पुनर्स्थापना करनी है तो हमें वार्ताकारों (दिलीप दिलीप पड़गांवकर, राधा कुमार और एमएम अंसारी) के रपट पर भी फिर से ध्यान देना होगा. (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)