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January 17, 2019

Hindi Article-Reservations for economically backwards-Another Jumla


आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए आरक्षण: एक और जुमला! -राम पुनियानी भारतीय जाति व्यवस्था, समानता की राह में सबसे बड़ा रोड़ा थी और है। स्वाधीनता के बाद, भारतीय संविधान लागू हुआ और इसके अंतर्गत सामाजिक-शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया। इसके बाद, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह को चौधरी देवीलाल से खतरा महसूस हुआ, तब उन्होंने मंडल आयोग की रपट लागू कर, अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) को 27 प्रतिशत आरक्षण प्रदान कर दिया। अभी हाल में, जाट, मराठा, पटेल व अन्य वर्चस्वशाली जातियों ने उन्हें आरक्षण दिए जाने की मांग उठानी शुरू की। इस मांग को लेकर पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न समुदायों ने बड़े आन्दोलन चलाये। इनसे सम्बंधित राज्य सरकारें पशोपेश में पड़ गयीं। इसी पृष्ठभूमि में, भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने ऊंची जातियों के आर्थिक दृष्टि से पिछड़े परिवारों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की है। केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा इस आशय के विधेयक को स्वीकृत करने के बाद, इसे संसद के दोनों सदनों ने पारित कर दिया और उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति भी प्राप्त हो गयी। ‘यूथ फॉर इक्वलिटी’ नामक संस्था, जो कि आरक्षण की अवधारणा का इस आधार पर विरोध करती आ रही है कि किसी भी काम को हासिल करने का एकमात्र आधार योग्यता होनी चाहिए, ने इस निर्णय को उच्चतम न्यायलय में चुनौती दी है। यह दिलचस्प है कि एक राजनैतिक दल के रूप में, भाजपा, आरक्षण की परिकल्पना की ही विरोधी रही है। दक्षिणपंथियों ने आरक्षण की अवधारणा का विरोध करते हुए कई आन्दोलन चलाये। सन 1980 में दलितों के लिए कोटा निर्धारित करने के मुद्दे को लेकर आरक्षण-विरोधी दंगे हुए थे, जिनके दौरान दलितों के खिलाफ हिंसा हुई थी। इसी तरह, सन 1985 के बाद से, पदोन्नति में आरक्षण के सिद्धांत के विरोध में हिंसा का एक और सिलसिला हुआ था। मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किये जाने का विरोध करने वाली एकमात्र पार्टी शिवसेना थी। आरक्षण की अवधारणा का विरोधी होने का दंभ भरने वाली भाजपा ने, चुनावी कारणों से, मंडल आयोग का विरोध नहीं किया। इसका मुकाबला करने के लिए उसने कमंडल की राजनीति शुरू की और राममंदिर आन्दोलन के नाम पर समाज को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत कर, देश में भारी रक्तपात की भूमिका रची। यूथ फॉर इक्वलिटी लगातार हर तरह के आरक्षण का विरोध करती आयी है। वह अब उच्चतम न्यायालय में है। अभी आरक्षण की उच्चतम सीमा 50 प्रतिशत है, जो इस 10 प्रतिशत आरक्षण के साथ 60 प्रतिशत हो जाएगी। यह बढोत्तरी न्यायपालिका को स्वीकार्य होगी या नहीं, यह अभी देखा जाना बाकी है। परन्तु 10 प्रतिशत आरक्षण के लिए पात्रता की जो शर्तें निर्धारित की गयीं हैं, वे चकित कर देने वालीं हैं। इनके अनुसार, रुपये 8 लाख तक की वार्षिक पारिवारिक आय वाले व्यक्ति और शहरों में 1,000 वर्ग फुट तक के क्षेत्रफल के मकान और गांवों में पांच एकड़ तक की ज़मीन के मालिक आरक्षण के पात्र होगें। इस लिहाज से तो देश की 90 प्रतिशत आबादी इस श्रेणी में आ जाएगी। जाहिर है कि इस परिभाषा से सकारात्मक भेदभाव के सिद्धांत, जो कि आरक्षण की व्यवस्था का आधार है, की चूलें हिल जायेगीं और ऊंची जातियों के गरीबों को कोई लाभ नहीं होगा। यह साफ़ है कि सरकार का इरादा यह कतई नहीं है कि ऊंची जातियों के गरीबों को आगे आने का अवसर मिले। अब तक, एससी, एसटी व ओबीसी समेत जो वर्ग आरक्षण का लाभ लेते आ रहे हैं, उन्हें समाज में नीची निगाहों से देखा जाता रहा है। इन वर्गों के लिए आरक्षण को निष्प्रभावी बनाने के लिए, बड़ी संख्या में निजी कॉलेज और विश्वविद्यालय स्थापित हुए, जिनमें प्रवेश पाने के लिए योग्यता से अधिक धन की दरकार होती है। योग्यता बड़ी या पैसा - यह खेल पिछले कई दशकों से चल रहा है और इनमें से कौन बड़ा है, इसके बारे में किसी को कोई संदेह नहीं है। जहाँ आरक्षित वर्गों के विद्यार्थियों की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाये जाते हैं, वहीं यह भी सच है कि शिक्षा के क्षेत्र में आज धनबल का महत्व बहुत बढ़ गया है। जाहिर है कि इन स्थितियों में आरक्षण की परिकल्पना के विरोध से सामाजिक-आर्थिक असमानता पर कोई ख़ास असर पड़ने वाला नहीं है। यह भी दिलचस्प है कि जहाँ आरक्षण को लेकर इतनी हायतौबा मची हुई है, वहीं सरकारी विभागों में हजारों पद खाली पड़े हुए हैं और महत्वपूर्ण कार्यों की आउटसोर्सिंग की जा रही है। हमारे नीति-निर्माता जानते हैं कि इस कदम से गरीबों को कोई लाभ नहीं मिलेगा क्योंकि नौकरियां उपलब्ध ही नहीं हैं। चाहे वह सरकार हो या सार्वजनिक क्षेत्र, दोनों में नौकरियों का टोटा है। इसके कारण, युवाओं में भरी आक्रोश और कुंठा है। जब खाली पद भरे ही नहीं जा रहे हैं और ना ही नए पदों का सृजन हो रहा है, तब आरक्षण का क्या अर्थ है। क्या यह एक झुनझुना मात्र नहीं है? श्री मोदी प्रतिवर्ष रोज़गार के दो करोड़ अवसर सृजित करने की वायदे के साथ 2014 में सत्ता में आये थे। नए अवसर तो निर्मित हुए नहीं उलटे असंगठित क्षेत्र में नोटबंदी के कारण नौकरियों की संख्या में भारी कमी आयी। ‘मेड इन इंडिया’ अभियान, जो रोज़गार सृजन करने वाला वाला था, फ्लॉप हो गया। बढ़ती हुई बेरोज़गारी के मद्देनज़र, सरकार को न केवल अपनी औद्योगिक नीति में बदलाव के बारे में सोचना होगा परन्तु यह भी विचार करना होगा कि हम आरक्षण जैसे सकारात्मक कार्यक्रमों को कैसे लागू करें। सामाजिक अन्याय के अलावा, धार्मिक भेदभाव के कारण भी लोग आर्थिक वंचना और बेरोज़गारी झेल रहे हैं। रंगनाथ मिश्रा और सच्चर रपटों से यह ज़ाहिर है कि मुसलमान अल्पसंख्यकों के साथ बड़े पैमाने पर भेदभाव होता आ रहा है। ऐसे में हम एक न्यायपूर्ण समाज के निर्माण की ओर कैसे बढ़े? जुमले उछालने वाले नेता न तो न्याय दे सकते हैं और ना ही नौकरियां। हमारे समाज के सामने जो समस्याएं हैं, इनसे निपटने के लिए हमें समावेशी एजेंडा वाली समावेशी सरकार चाहिये। समाज के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था, मोदी-भाजपा का एक और जुमला है। इससे ऊंची जातियों के गरीबों को फायदा होने वाला नहीं है। दूसरी ओर, आर्थिक आधार पर आरक्षण देना, एक तरह से इस बात की स्वीकारोक्ति है कि सरकार निर्धनता का उन्मूलन करने में असफल रही है। यह हमारे संविधान में आरक्षण के एकमात्र आधार - सामाजिक पिछड़ापन - के साथ छेड़छाड़ का प्रयास भी है। आरक्षण, गरीबी-उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। गरीबी को समाप्त करने की ज़रुरत है परन्तु कॉर्पोरेट घरानों की पिछलग्गू सरकार से हम यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि वह गरीबों की भलाई के लिए सार्थक और अर्थपूर्ण कदम उठाएगी। (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)