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December 27, 2018

Hindi article: Naseeruddin Shah ko Gussa kyon ata hai?


नसीरूद्दीन शाह को गुस्सा क्यों आता है? -राम पुनियानी किसी भी प्रजातांत्रिक समाज के स्वस्थ होने का एक महत्वपूर्ण पैमाना यह है कि उसमें अल्पसंख्यक स्वयं को कितना सुरक्षित महसूस करते हैं। उतना ही महत्वपूर्ण पैमाना यह है कि समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किस हद तक है। इन दोनों पैमानों पर भारतीय प्रजातंत्र पिछले कुछ वर्षों से खरा नहीं उतर रहा है। ऐसा लगता है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने के प्रयास हो रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से मुसलमान और ईसाई स्वयं को इस देश में सुरक्षित अनुभव नहीं कर रहे हैं। इसका अर्थ कदापि यह नहीं है कि इसके पहले इन दोनों अल्पसंख्यक समुदायों के लिए स्थितियां अत्यंत अनुकूल थीं। तथ्य यह है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दोनों पैमानों पर पिछले कुछ दशकों से भारत की स्थिति कमजोर होती जा रही है। परंतु इन दोनों पैमानों पर सबसे बड़ी गिरावट केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के शासन में आने के बाद से दर्ज की जा रही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा काफी हद तक एक दूसरे से जुड़े हुए मुद्दे हैं। हाल में भारतीय फिल्म उद्योग के एक अप्रतिम व्यक्तित्व नसीरूद्दीन शाह ने उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर में गौहत्या के नाम पर भड़काई गई हिंसा में एक पुलिस अधिकारी, सुबोध सिंह, की मृत्यु की पृष्ठभूमि में अपने मन की बात देश के सामने रखी। शाह ने कारवां-ए-मोहब्बत के साथ एक साक्षात्कार में अपने ह्दय की पीड़ा को अभिव्यक्त किया। नफरत से उपजे अपराधों के विरूद्ध पूर्व आईएएस अधिकारी हर्षमंदर के नेतृत्व वाला यह समूह, काबिले तारीफ कार्य कर रहा है। इसके सदस्य नफरत के कारण हुए अपराधों के पीड़ित परिवारों से मिलकर उनके घावों पर मरहम लगाने का काम कर रहे हैं। कारवां-ए-मोहब्बत हमारे विविधवर्णी समाज में विभिन्न समुदायों के बीच मोहब्बत को बढ़ावा देने का काम कर रहा है। शाह ने कारवां-ए-मोहब्बत से कहा, ‘‘हम देख रहे हैं कि कई क्षेत्रों में एक पुलिस अधिकारी के जीवन से ज्यादा महत्व एक गाय के जीवन को दिया जा रहा है। मैं अपने बच्चों के बारे में चिंतित हूं क्योंकि उनका कोई धर्म नहीं है...कल को यदि एक भीड़ उन्हें घेर ले और उनसे पूछे कि वे हिन्दू हैं या मुसलमान, तो उनके पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं होगा। मैं इसलिए और भी चिंतित हूं क्योंकि मुझे ऐसा नहीं लगता कि हालात में जल्द ही कोई सुधार होने वाला है। इस तरह की चीजें मुझे डराती नहीं हैं। वे मुझे गुस्से से भर देती हैं।‘‘ उन्होंने यह भी कहा कि समाज में फैल रही नफरत एक ऐसे जिन्न की तरह है, जिसे बोतल से बाहर निकाल दिया गया है और उसे अब फिर से बोतल में बंद करना बहुत मुश्किल है। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ लोगों की हिम्मत इतनी बढ़ गई है कि वे खुलेआम हथियार उठाकर हिंसा कर रहे हैं। और ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि वे जानते हैं कि उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। कोई भी ऐसा समाज, जो प्रेम और सद्भाव को महत्व देता हो, किसी नागरिक की इस व्यथा पर आत्मचिंतन करेगा। देश के कई प्रगतिशील संगठनों, जिनमें प्रगतिशील लेखक संघ शामिल है, ने बयान जारी कर नसीर के साथ अपनी एकजुटता प्रकट की। कुछ व्यक्तियों जैसे आशुतोष राणा ने कहा कि वे उनकी इस चिंता में सहभागी हैं। परंतु समाज का एक बड़ा हिस्सा उन पर टूट पड़ा। उनके साथ कई फिल्मों में सह-अभिनेता रहे अनुपम खेर ने उनकी हंसी उड़ाते हुए कहा कि देश में सेना पर पत्थर फेंकने और शीर्ष सैन्य अधिकारियों के बारे में कुछ भी कहने की आजादी है। उन्होंने यह जानना चाहा कि नसीर और कितनी आजादी चाहते हैं। मोदी सरकार में केन्द्रीय मंत्री उमा भारती ने फरमाया कि शाह, विघटनकारी राजनीति करने वालों के मोहरे हैं। बाबा रामदेव, जो योगशिक्षक-सह-अरबपति उद्योगपति हैं ने उन्हें राष्ट्रविरोधी बताया। कुछ अन्यों ने कहा कि वे ऐसे किसी भी देश में जाने के लिए स्वतंत्र हैं, जहां वे स्वयं को सुरक्षित महसूस करते हों। भाजपा की उत्तरप्रदेश इकाई के मुखिया ने उन्हें पाकिस्तानी एजेंट करार दिया। इसी विरोध के चलते वे अजमेर साहित्य उत्सव में भाग नहीं ले पाए और उन्हें वहां से बेरंग लौटना पड़ा। यह पहली बार नहीं है कि किसी मुस्लिम फिल्म अभिनेता के साथ ऐसा निंदनीय व घटिया व्यवहार किया गया हो। सन् 2015 में जब शाहरूख खान ने समाज में बढ़ती असहिष्णुता पर टिप्पणी की थी, तब उनकी तुलना पाकिस्तान के हाफिज सईद से की गई थी। इसके अगले साल, जब कुछ जानीमानी शख्सियतों ने देश में बढ़ती असहिष्णुता पर अपना विरोध दर्ज करने के लिए उन्हें मिले सरकारी पुरस्कार लौटाए थे, तब आमिर खान ने सार्वजनिक रूप से यह कहा था कि उनकी पत्नी किरण राव उनके बच्चे की सुरक्षा के बारे में चिंतित हैं। आमिर खान पर भी इसी तरह की अपमानजनक टिप्पणियां की गईं थीं। यह सच है कि पिछले कुछ वर्षों में गुजरात (2002), कंधमाल (2008) या मुजफ्फरनगर (2013) जैसी साम्प्रदायिक विभिषिकाएं नहीं हुईं हैं परंतु इनका स्थान निरंतर चलने वाली हिंसा ने ले लिया है। कुछ व्यक्तियों के साथ भयावह और अमानवीय हिंसा हुई है। इससे मुस्लिम समुदाय का भयाक्रांत हो जाना स्वाभाविक है। ईसाईयों की प्रार्थनासभाओं पर हमलों ने उनमें असुरक्षा का भाव भर दिया है। मोहम्मद अखलाक से लेकर जुन्नैद और उससे लेकर रकबर खान के साथ जो कुछ हुआ उससे यह स्पष्ट हो गया है कि अब साम्प्रदायिक राजनीति के तालिबानी योद्धा यह तय करेंगे कि हम क्या खाएं और क्या नहीं। इससे भी बुरी बात यह है कि सत्ताधारी दल इस तरह के अपराधों में संलिप्त व्यक्तियों की स्वीकार्यता को बढ़ावा दे रहा है और यहां तक कि उन्हें सम्मान प्रदान करता आ रहा है। अखलाक मामले के आरोपी के शव पर केन्द्रीय मंत्री महेश शर्मा ने तिरंगा लपेटा था और एक अन्य केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने पीट-पीटकर हत्या के एक मामले के आरोपियों का सम्मान किया था। राजस्थान में शंभूलाल रैगर ने अफराजुल के साथ लव जिहाद के मुद्दे पर जिस प्रकार की वीभत्स हिंसा की, वह मानवता को शर्मसार करने वाली थी। रैगर ने न केवल अत्यंत क्रूरतापूर्वक अफराजुल को मौत के घाट उतारा वरन् इस भयावह अपराध का वीडियो बनवाकर उसे सोशल मीडिया पर अपलोड भी किया। और इसके बाद रैगर को सम्मानित करने के लिए एक समिति का गठन किया गया। इस पृष्ठभूमि में उमा भारती द्वारा शाह पर विघटनकारी राजनीति करने का आरोप लगाना हास्यास्पद है। राममंदिर और पवित्र गाय के मुद्दों को उछालना विघटनकारी है या अपने मन के भय को व्यक्त करना? जाहिर है कि शाह की तरह कई अन्य लोग भी पुलिस अधिकारी की हत्या से अधिक महत्व गाय की हत्या को दिए जाने से आहत होंगे। जिस भीड़ ने ये हरकत की वह अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत से भरी हुई थी। शाह ने जो कुछ कहा है वह हमारे समाज के लिए एक चेतावनी है। हमें जल्द से जल्द नफरत के जिन्न को फिर से बोतल में भरना होगा और उस बोतल को समुद्र में फेंक देना होगा ताकि वह जिन्न फिर कभी वापस न आ सके। (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)