|

August 31, 2018

Hindi article - Atal Bihari Vajpayee- Liberal Face with Soul of Sangh [वाजपेयी की मदद से ही देश में आरएसएस ने गहराई तक फैलाई अपनी जड़ें]

नवजीवन

वाजपेयी की मदद से ही देश में आरएसएस ने गहराई तक फैलाई अपनी जड़ें
राम पुनियानी
Published: Aug 31st 2018, 02.00 PM

वाजपेयी हमेशा संघ के प्रति वफादार बने रहे

फोटो: सोशल मीडिया

वाजपेयी हमेशा संघ के प्रति वफादार बने रहे
पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी हमेशा संघ के प्रति वफादार बने रहे। अमरीका के स्टेटन आईलैंड में बोलते हुए उन्होंने कहा कि वे भले ही प्रधानमंत्री हों परंतु मूलतः वे आरएसएस कार्यकर्ता हैं। गुजरात के डांग में ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा के बाद पीड़ितों के बारे में एक शब्द नहीं कहा।

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी की मृत्यु के बाद उन्हें दी गई श्रद्धांजलियों में वाजपेयी को एक उदारमना और सौम्य नेता बताया गया। कई लोगों ने कहा कि वे ‘गलत पार्टी में सही नेता’ थे। श्री वाजपेयी के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि व्यक्तिगत तौर पर वे एक ‘अच्छे आदमी’ थे, जिन्होंने शासन में रहते हुए भी कभी कठोर रवैया नहीं अपनाया। इसमें कोई संदेह नहीं कि वे एक बेहतरीन वक्ता थे। परंतु क्या वे अच्छे आदमी भी थे?

उनकी मृत्यु के बाद विचलित कर देने वाली कई घटनाएं हुईं। उन्हें श्रद्धांजलि देने पहुंचे स्वामी अग्निवेश के साथ मारपीट की गई। सोशल मीडिया पर वाजपेयी की आलोचना करने के लिए बिहार के मोतिहारी केन्द्रीय विश्वविद्यालय के शिक्षक संजय कुमार के साथ जबरदस्त हिंसा हुई। औरंगाबाद में वाजपेयी को श्रद्धांजलि देने से इंकार करने पर एक निर्वाचित पार्षद को जेल भेज दिया गया। दूसरी ओर, उनकी भतीजी करूणा शुक्ला ने बीजेपी पर आरोप लगाया कि पिछले 9 सालों से, जब वाजपेयी बिस्तर पर थे, बीजेपी ने उन्हें नजरअंदाज किया और उनकी मृत्यु के बाद अब वह राजनैतिक लाभ के लिए उनके नाम का इस्तेमाल करना चाहती है। बीजेपी बड़े जोर-शोर से उनकी अस्थिकलश यात्राएं निकाल रही है और उनकी अस्थियों को देश की विभिन्न नदियों में विसर्जित किया जा रहा है। इसे भी एक राजनैतिक नौटंकी के रूप में देखा जा रहा है।

पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाने और कश्मीर में शांति स्थापना के लिए उनकी कोशिशों के बावजूद, उनकी असली राजनैतिक विचारधारा के बारे में किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए। उनकी वक्तृत्व कला, उनके मजाहिया स्वभाव और उनके उदार दृष्टिकोण की बहुत तारीफ की जाती है परंतु क्या हम यह भूल सकते हैं कि उन्होंने जीवन भर संकीर्ण हिन्दू राष्ट्रवाद के लिए काम किया। बहुत कम आयु में उन्होंने आरएसएस की सदस्यता ले ली और उनकी एक कविता ‘हिन्दू तनमन, हिन्दू जीवन’ अत्यंत प्रसिद्ध हुई।

यह वह समय था जब भारत के लोग भारतीय के रूप में अपनी पहचान बनाने का प्रयास कर रहे थे। उन्होंने आरएसएस के मुखपत्र ‘आर्गनाईजर‘ में अपने राजनैतिक एजेंडे पर एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था ‘संघ इज माय सोल’। बाद में एक लेख में उन्होंने यह दावा किया कि उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया था। उनके इस दावे का भंडाफोड़ ‘फ्रंटलाईन’ पत्रिका ने किया। पता यह चला कि वे अपने गांव बटेश्वर में भारत छोड़ो आंदोलन के अंतर्गत निकाले जा रहे जुलूस में तमाशबीन भर थे। उन्होंने अदालत में अपने बयान में स्वयं यह स्वीकार किया कि वे जुलूस का हिस्सा नहीं थे। उन्होंने गांव में आंदोलन का नेतृत्व कर रहे लोगों के नाम भी उजागर किए और उन्हें कुछ दिनों बाद जेल से रिहा कर दिया गया। सन् 1942 के आंदोलन के दौरान, आरएसएस के मुखिया ने स्वयंसेवकों को इस आंदोलन से दूर रहने का निर्देष दिया था। संघ के वफादार कार्यकर्ता बतौर उन्होंने इस निर्देष का पालन किया।।

स्वतंत्रता के बाद गाय को राजनीति के केन्द्र में लाने का पहला बड़ा प्रयास 6 नवंबर 1966 को किया गया जब हथियारबंद साधुओं की एक बड़ी भीड़ ने संसद पर आक्रमण कर दिया। इस अवसर पर वाजपेयी ने भी भाषण दिया था। जब जनता पार्टी शासनकाल (1977-79) में यह मांग उठी कि वाजपेयी और उनके जैसे अन्य नेताओं, जिन्होंने जनता पार्टी की सदस्यता ले ली थी, को आरएसएस से अपने संबंध तोड़ देने चाहिए, तब तत्कालीन जनसंघ के अन्य नेताओं सहित वाजपेयी ने ऐसा करने से इंकार कर दिया और नतीजे में जनता पार्टी बिखर गई।

जहां तक राममंदिर आंदोलन का सवाल है, ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने इसमें हिस्सेदारी नहीं की थी। तथ्य यह है कि उन्होंने 5 दिसंबर, 1992 को अपने एक अत्यंत भड़काऊ भाषण में कारसेवा करने की आवश्यकता पर जोर दिया था और यह भी कहा था कि उसके लिए मैदान को ‘समतल’ किया जाना चाहिए। इस ‘समतल’ का अर्थ समझना मुश्किल नहीं है। बाबरी के ध्वंस के तुरंत बाद, 7 दिसंबर 1992 को उन्होंने कहा कि वे देश के प्रति क्षमाप्रार्थी हैं। इसके एक सप्ताह बाद उन्होंने कहा कि जो कुछ हुआ, वह ईश्वर इच्छा थी और एक माह बाद उन्होंने फरमाया कि ‘अगर बहुसंख्यकों की भावनाओं का सम्मान नहीं किया जाएगा तो इसका यही नतीजा होगा’।

रूचिरा गुप्ता नामक पत्रकार, जो ध्वंस के समय वहां मौजूद थीं और जिनके साथ कारसेवकों ने बदसलूकी और मारपीट की थी, ने बताया कि वाजपेयी ने उन्हें चाय पर बुलाया और उनसे कहा कि जो कुछ उनके साथ हुआ, उसके बारे में उन्हें चुप रहना चाहिए क्योंकि वे एक अच्छे परिवार से हैं। वाजपेयी ने जानते बूझते अपनी एक मृदु छवि बनाई ताकि संघ के बाबरी मस्जिद को गिराने के अपराध को ढंका जा सके। आडवाणी ने उनका नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया। इसका कारण बहुत साफ था। जहां आडवाणी ने बीजेपी के लिए समर्थन जुटाया था, वहीं यह भी सच था कि सत्ता में आने के लिए बीजेपी को अन्य पार्टियों से गठबंधन करना पड़ता और एक कट्टरपंथी नेता के रूप में आडवाणी की छवि इसकी राह में आती।

वाजपेयी हमेशा संघ के प्रति वफादार बने रहे। अमरीका के स्टेटन आईलैंड में बोलते हुए उन्होंने कहा कि वे भले ही प्रधानमंत्री हों परंतु मूलतः वे आरएसएस कार्यकर्ता हैं। गुजरात के डांग में ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा (1999) के बाद उन्होंने धर्मपरिवर्तन पर राष्ट्रीय बहस की मांग की परंतु हिंसा पीड़ितों के बारे में एक शब्द नहीं कहा।

इसी तरह, गुजरात में सन् 2002 की हिंसा के दौरान, नरेन्द्र मोदी को राजधर्म का पालन करने की उनकी सलाह का जबरदस्त महिमामंडन किया जाता है। ऐसा बताया जाता है कि उन्होंने नरेन्द्र मोदी को पद से हटाने का निर्णय ले लिया था परंतु बीजेपी कार्यकर्ताओं में मोदी की लोकप्रियता को देखते हुए उन्होंने अपने कदम वापस खींच लिए। बाद में अपने एक भाषण में उन्होंने मोदी के ‘क्रिया-प्रतिक्रिया सिद्धांत’ का दूसरे शब्दों में समर्थन किया। उन्होंने कहा कि ‘अगर साबरमती एक्सप्रेस के निर्दोष यात्रियों को जिंदा जलाने का षड़यंत्र नहीं रचा गया होता तो उसके बाद हुई त्रासदी से बचा जा सकता था। परंतु ऐसा नहीं हुआ और लोगों को जिंदा जला दिया गया’। उनके अनुसार ट्रेन में आग लगाए जाने की पर्याप्त निंदा नहीं हुई। मुसलमानों के प्रति आरएसएस के वैरभाव को व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि ‘मुसलमान जहां भी होते हैं, वहां समस्याएं होती हैं’।

वाजपेयी उस दौर में राजनीति के शीर्ष पर थे जब संघ परिवार को देश में अपनी जमीन बनानी थी। उन्होंने संघ की राजनीति को ही आगे बढ़ाया। हां, उनके शब्द मीठी चाशनी में लिपटे होते थे। और ऐसा करने में वे सिद्धहस्त थे। ताज्जुब नहीं कि आरएसएस चिंतक गोविंदाचार्य ने उन्हें बीजेपी का मुखौटा बताया था।