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February 08, 2018

Hindi Article- Padmvati-Khilji: What does Hisotry say?


पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी: क्या कहता है इतिहास? -राम पुनियानी कटु विरोध और हिंसात्मक प्रदर्शनों के बीच रिलीज हुई फिल्म ‘पद्मावत‘ को बाक्स आफिस पर भारी सफलता हासिल हुई है। जिन तत्वों ने इस फिल्म का विरोध किया था, उन्हें इस बात से प्रसन्नता होनी चाहिए - और शायद हुई भी होगी - कि फिल्म जो सन्देश देती है, वह उनके एजेंडे में एकदम फिट बैठता है। फिल्म के निर्माण, उसके रिलीज होने के पहले और रिलीज होने के बाद जो हिंसा और तोड़फोड़ हुई, उसने हमारे देश के प्रजातांत्रिक मूल्यों को शर्मसार किया है। इस फिल्म का विरोध कर रहे संगठनों- जिनमें करणी सेना जैसे हिन्दू दक्षिणपंथी संगठन शामिल थे - का आरोप था कि यह फिल्म राजपूतों के गौरव को चोट पहुंचाती है। जिस समय फिल्म का विरोध शुरू हुआ था, तब तक किसी ने भी न तो यह फिल्म देखी थी और ना ही उसकी पटकथा पढ़ी थी। विरोधियों की मुख्य शिकायत यह थी कि ‘शायद’ फिल्म में एक स्वप्न दृश्य है, जिसमें मुस्लिम बादशाह अलाउद्दीन खिलजी - जो कि उनकी निगाहों में खलनायक है - और राजपूत राजकुमारी पद्मावती को एक साथ दिखाया गया है। फिल्म का विरोध मुख्यतः इस आधार पर किया जा रहा था कि वह राजपूतों के अतीत को विकृत ढंग से प्रस्तुत करती है। परंतु शायद किसी ने इस बात पर ध्यान देने का तनिक भी प्रयास नहीं किया कि यह फिल्म अलाउद्दीन खिलजी के चरित्र को भी तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करती है। यहां यह महत्वपूर्ण है कि जहां पद्मावती केवल एक कल्पना है वहीं खिलजी एक ऐतिहासिक किरदार है। यह फिल्म भारत में प्रचलित इस टकसाली अवधारणा को पुष्ट करती है कि हिन्दू राजा, शौर्य और महानता के जीते-जागते उदाहरण थे जबकि मुस्लिम नवाब और बादशाह, कुटिल व दुष्ट शासक थे। पाकिस्तान में मुस्लिम राजाओं को नायक और हिन्दुओं को खलनायक बताया जाता है। यह फिल्म पितृसत्तात्मक मूल्यों को बढ़ावा देती है। करणी सेना को इस फिल्म को देखकर बहुत प्रसन्नता हुई होगी, विशेषकर इसलिए क्योंकि उसमें इस मुस्लिम राजा को एक नरपिशाच के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसका सभ्यता और संस्कृति से कोई लेनादेना नहीं था। फिल्म, खिलजी को एक ऐसे बर्बर व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करती है जिसके चेहरे और सिर के बाल बेतरतीब हैं, जिसकी रूचि केवल मांस भक्षण में है, जो अपने सीने को नग्न रखता है, महिलाओं के पीछे भागना जिसका प्रिय शगल है और जो हत्यारा व बलात्कारी है। खिलजी के चरित्र का यह प्रस्तुतिकरण, गंभीर इतिहासविदों के खिलजी के वर्णन से तनिक भी मेल नहीं खाता। भारत के मध्यकालीन इतिहास के जानेमाने अध्येता, जिनमें सतीश चन्द्र, राना सफवी और रजत दत्ता शामिल हैं, बताते हैं कि अन्य राजाओं की तरह, खिलजी भी अपना दरबार लगाता था और अपने राज्य क्षेत्र का विस्तार करने की हर संभव कोशिश करता था। खिलजी, परिष्कृत फारसी संस्कृति में रचा-बसा था। इतिहासविद् सफवी बताती हैं कि वह उस संस्कृति का अनुयायी था जिसमें “शासक, एक निश्चित आचार संहिता और शिष्टाचार का पालन करते थे। चाहे बात खानपान की हो या वेशभूषा की, उनका व्यवहार अत्यंत औपचारिक और संयत हुआ करता था”। सतीश चन्द्र कहते हैं कि उसने कई ऐसे नियम बनाए जो दकियानूसी उलेमा के फरमानों के खिलाफ थे। खिलजी के समय में बनाए गए उसके चित्र यह दिखाते हैं कि वह अत्यंत सुंदर वस्त्र पहनता था। इसके विपरीत, फिल्म में उसे अर्धनग्न और अजीबोगरीब कपड़े पहने हुए दिखाया गया है। अलाउद्दीन खिलजी ने भूराजस्व व्यवस्था में अनेक सुधार किए और बोए गए क्षेत्र के आधार पर किसानों से लगान वसूलना शुरू किया। लगान के निर्धारण की उसकी व्यवस्था से छोटे किसानों को राहत मिली और जमींदारों को नुकसान हुआ। उस दौर में लगान ही राज्य की आय का मुख्य स्त्रोत हुआ करता था। खिलजी के बाद शेरशाह सूरी और फिर अकबर ने भूराजस्व प्रणाली में सुधार किए। देवगिर (गुजरात) के हिन्दू राजा रामदेव के साथ खिलजी का गठबंधन, अपने प्रभाव क्षेत्र में विस्तार के उसके प्रयासों का हिस्सा था। खिलजी भवन निर्माण में बहुत रूचि रखता था और इसके लिए उसने लगभग सत्तर हजार श्रमिकों को स्थायी रूप से काम पर रखा हुआ था। हौजखास का निर्माण उसी ने करवाया था। यह दावे के साथ कोई नहीं कह सकता कि कौनसा शासक अच्छा था और कौनसा बुरा, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि अपनी कुशल सैन्य रणनीति के चलते उसने दिल्ली सल्तनत को खानाबदोश मंगोलों के हमलों से बचाया। मंगोल अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे परंतु उनकी रूचि केवल पराजित राजा से धन वसूलने और उसके राज्य को लूटने में थी। वे जिस इलाके पर हमला करते थे, उसे बर्बाद कर देते थे। मंगोल जहां खानाबदोश थे वहीं खिलजी जैसे राजा विजित क्षेत्र में रहकर वहां शासन करने में विश्वास रखते थे। अगर मंगोल, खिलजी पर विजय प्राप्त करने में सफल हो जाते तो भारत में तत्समय विकसित हो रही हिन्दुओं, मुसलमानों, जैनियों और बौद्धों की सांझा संस्कृति नष्ट हो गई होती। जैसे-जैसे खिलजी का साम्राज्य विस्तृत होता गया, उसने बाजार पर नियंत्रण रखने की प्रणाली विकसित की। उस समय दिल्ली व्यापार-व्यवसाय का केन्द्र था। खिलजी ने दिल्ली में विभिन्न वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रित किया। इसके नतीजे में दिल्ली शहर और उसके राज्य की प्रगति हुई। कुल मिलाकर, खिलजी फारसी संस्कृति और सभ्यता में विश्वास रखने वाला एक ऐसा राजा था, जिसने दिल्ली सल्तनत की नींव को मजबूत किया, भूराजस्व व्यवस्था में सुधार किए और कीमतों पर नियंत्रण स्थापित किया। अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए उसने हिन्दू और मुस्लिम राजाओं के साथ संधियां कीं और कुछ राज्यों, जिनमें चित्तौड़ भी शामिल था, के साथ युद्ध भी किया। इस फिल्म में खिलजी को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है, उससे केवल वर्तमान में मुस्लिम राजाओं के बारे में प्रचलित भ्रांतिपूर्ण धारणाओं को और मजबूती मिलेगी। राजाओं को उनके धर्म के चश्मे से देखने की शुरूआत ब्रिटिश इतिहास लेखकों ने की थी। इसी परंपरा को भारतीय इतिहास लेखक आगे बढ़ाते गए। स्पष्ट है कि जब राजाओं को केवल उनके धर्म के नजरिए से देखा जाएगा, तब इस बात का निर्धारण कि वे नायक थे या खलनायक, भी केवल उनके धर्म से होगा, उनके कार्यों या उपलब्धियों से नहीं। पाकिस्तान में इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में से हिन्दू राजाओं को या तो गायब कर दिया गया है या उन्हें डरपोक और कमजोर शासकों के रूप में चित्रित किया गया है। भारत में जोर इस बात पर है कि मुसलमान बादशाहों को ऐसे शासकों के रूप में दिखाया जाए, जो असभ्य और बर्बर थे और जिनका एकमात्र लक्ष्य तलवार की नोंक पर इस्लाम का विस्तार करना था। जनता से कर वसूलने में सभी धर्मों के राजाओं ने जोर-जबरदस्ती और हिंसा का सहारा लिया परंतु इसे भी हिन्दुओं पर मुस्लिम राजाओं के अत्याचार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। महमूद गजनी, मोहम्मद गौरी और औरंगजेब जैसे मुस्लिम राजाओं को पहले ही दुष्ट खलनायक सिद्ध कर दिया गया है। भंसाली की पद्मावत ने इस सूची में अलाउद्दीन खिलजी का नाम भी जोड़ दिया है। आज जरूरत इस बात की है कि हम राजाओं के कार्यों, उनकी सफलताओं और असफलताओं को उनके धर्म से अलग हटकर देखें। देखा यह जाना चाहिए कि किसी शासक की राजस्व और व्यापार नीति क्या थी और उसने सहिष्णुता और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए क्या किया। यह मानना कि चूंकि कोई राजा अमुक धर्म का था इसलिए वह बुरा ही होगा, न तो तार्किक है और ना ही तथ्यपूर्ण। (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (