-राम पुनियानी
महाराष्ट्र
के कोरेगांव में एक जनवरी 2018 को उन दलित
सिपाहियों, जो सन् 1818 में पेशवा के
खिलाफ युद्ध में अंग्रेजों की ओर से लड़ते हुए मारे गए थे, को
श्रद्धांजलि देने के लिए इकट्ठा हुए दलितों के खिलाफ अभूतपूर्व हिंसा हुई। सन् 1927 में अंबेडकर ने
कोरेगांव जाकर इन शहीदों को अपनी श्रद्धांजलि दी थी। दलितों द्वारा हर साल भीमा
कोरेगांव में इकट्ठा होकर मृत सैनिकों को श्रद्धांजलि देना, दलित
पहचान को बुलंद करने के प्रतीक के रूप में देखा जाने लगा है। इस साल यह समारोह बड़े
पैमाने पर आयोजित किया गया क्योंकि इस युद्ध के 200 साल पूरे
हो रहे थे। विवाद एक दलित - गोविंद गायकवाड़ - जिसके बारे में यह कहा जाता है कि
उसने संभाजी का अंतिम संस्कार किया था - की समाधि को अपवित्र किए जाने से शुरू
हुआ। भगवा झंडाधारियों ने उन दलितों पर पत्थर फेंके जो भीमा कोरेगांव मे इकट्ठा
हुए थे। शिवाजी प्रतिष्ठान और समस्त हिन्दू अगादी नामक हिन्दुत्व संगठन इस हिंसा
के अगुआ थे।
पुणे
के शनिवारवाड़ा,
जो पेशवाओं के राज का केन्द्र था, में एक सभा
को संबोधित करते हुए दलित नेता जिग्नेश मेवानी ने ‘आधुनिक पेशवाई‘
के खिलाफ संघर्ष शुरू करने का आव्हान किया। ‘आधुनिक
पेशवाई‘ से उनका आशय भाजपा-आरएसएस की राजनीति से था। जिस सभा
में उन्होंने भाषण दिया, वहां दलितों के साथ-साथ अन्य
समुदायों के नेता भी उपस्थित थे। इस घटना पर विभिन्न प्रतिक्रियाएं हुईं। कुछ लोग
इसे मराठा विरूद्ध दलित संघर्ष बता रहे हैं तो कुछ का कहना है कि यह दलितों पर
हिन्दुत्ववादी ताकतों का हमला है। एक ट्वीट में राहुल गांधी ने इस घटना के लिए
भाजपा की फासीवादी व दलित-विरोधी मानसिकता को दोषी ठहराया।
भीमा
कोरेगांव युद्ध का इतिहास, समाज में व्याप्त कई मिथकों को
तोड़ता है । इस युद्ध में एक ओर थे अंग्रेज, जो अपने
साम्राज्य का विस्तार करना चाहते थे, तो दूसरी ओर थे पेशवा, जो
अपने राज को बचाना चाहते थे। अंग्रेजों ने अपनी सेना में बड़ी संख्या में दलितों को
भर्ती किया था। इनमें महाराष्ट्र के महार, तमिलनाडू के
पार्या और बंगाल के नामशूद्र शामिल थे। अंग्रेजों ने उन्हें अपनी सेना में इसलिए शामिल
किया था क्योंकि वे अपने नियोक्ताओं के प्रति वफादार रहते थे और आसानी से उपलब्ध
थे। पेशवा की सेना में अरब के भाड़े के सैनिक शामिल थे। इससे यह साफ है कि
मध्यकालीन इतिहास को हिन्दू बनाम मुस्लिम संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया जाना
कितना गलत है। जहां इब्राहिम खान गर्दी, शिवाजी की सेना में शामिल
थे वहीं बाजीराव पेशवा की सेना में अरब सैनिक थे। दुर्भाग्यवश, आज हम अतीत को साम्प्रदायिकता के चश्मे से देख रहे हैं और इस बात को स्वीकार
करने के लिए तैयार नहीं हैं कि युद्धों का उद्देश्य केवल और केवल संपत्ति और सत्ता
हासिल करना था।
बाद
में अंग्रेजों ने दलितों और महारों को अपनी सेना में भर्ती करना बंद कर दिया
क्योंकि उन्होंने पाया कि ऊँची जातियों के सिपाही अपने दलित अफसरों को सेल्युट
करने और उनसे आदेश लेने के लिए तैयार नहीं थे। अंबेडकर का प्रयास यह था कि दलितों
की ब्रिटिश सेना में भर्ती जारी रहे और इसी सिलसिले में उन्होंने यह सुझाव दिया कि
सेना में अलग से महार रेजिमेंट बनाई जानी चाहिए। महार सिपाहियों के पक्ष में
अंबेडकर इसलिए खड़े हुए क्योंकि वे चाहते थे कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों में
दलितों की मौजूदगी हो।
क्या
भीमा कोरेगांव युद्ध दलितों द्वारा पेशवाई को समाप्त करने का प्रयास था? यह सही है कि पेशवाओं का शासन घोर ब्राम्हणवादी था। शूद्रों को अपने गले
में एक मटकी लटकाकर चलना पड़ता था और उनकी कमर में एक झाड़ू बंधी रहती थी ताकि वे
जिस रास्ते पर चलें, उसे साफ करते जाएं। यह जातिगत भेदभाव और
अत्याचार का चरम था। क्या अंग्रेज, बाजीराव के खिलाफ इसलिए
लड़ रहे थे क्योंकि वे पेशवाओं के ब्राम्हणवाद का अंत करना चाहते थे? कतई नहीं। वे तो केवल अपने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार करने के इच्छुक
थे ताकि उनका व्यापार और फले-फूले और उन्हें भारत को लूटने के और अवसर उपलब्ध हो
सकें। इसी तरह, महार सिपाही, पेशवा के
खिलाफ इसलिए लड़े क्योंकि वे अपने नियोक्ता अर्थात अंग्रेजों के प्रति वफादार थे।
यह सही है कि इसके कुछ समय बाद देश में समाज सुधार की प्रक्रिया शुरू हुई और उसका
कारण थी आधुनिक शिक्षा। अंग्रेजों ने देश में आधुनिक शिक्षा व्यवस्था इसलिए लागू
की ताकि प्रशासन के निचले पायदानों पर काम करने के लिए लोग उन्हें उपलब्ध हो सकें।
समाज सुधार इस प्रक्रिया का अनायास प्रतिफल था। अंग्रेज़ भारत की सामाजिक व्यवस्था
में परिवर्तन लाने के लिए अपनी नीतियां नहीं बनाते थे। वैसे भी, उस दौर में जातिगत शोषण के प्रति उस तरह की सामाजिक जागृति नहीं थी जैसी
कि बाद में जोतिबा फुले के प्रयासों से आई।
यह
कहना कि पेशवा राष्ट्रवादी थे और दलित, ब्रिटिश सेना में
भर्ती होकर साम्राज्यवादी शक्तियों का समर्थन कर रहे थे, बेबुनियाद
है। राष्ट्रवाद की अवधारणा ही औपनिवेशिक शासनकाल में उभरी। ब्रिटिश शासन के कारण
देश में जो सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन आए, उनके चलते दो तरह के
राष्ट्रवाद उभरे। पहला था भारतीय राष्ट्रवाद, जो
उद्योगपतियों, व्यापारियों, शिक्षित
व्यक्तियों, श्रमिकों
और पददलित तबके के नए उभरते वर्गों की महत्वाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति था। दूसरे
प्रकार का राष्ट्रवाद धर्म पर आधारित था - हिन्दू राष्ट्रवाद और मुस्लिम
राष्ट्रवाद। इसके प्रणेता थे जमींदार और राजा-नवाब, जो समाज
में प्रजातांत्रिक मूल्यों के प्रति बढ़ते आकर्षण से भयातुर थे और धर्म के नाम पर
अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते थे।
पिछले
कुछ वर्षों में देश में दलितों के बीच असंतोष बढ़ा है। इसको पीछे कई कारण हैं।
रोहित वेम्युला की संस्थागत हत्या और ऊना में दलितों की निर्मम पिटाई इसके लिए कम
जिम्मेदार नहीं हैं। वर्तमान सरकार की नीतियां, दलितों
को समाज के हाशिए पर धकेल रहीं हैं - फिर चाहे वह आर्थिक क्षेत्र हो या शिक्षा का
क्षेत्र। कोरेगांव में भारी संख्या में दलितों का इकट्ठा होना इस बात का प्रतीक है
कि वर्तमान स्थितियों से वे गहरे तक असंतुष्ट हैं। नए उभरे दलित संगठन समाज के
अन्य दमित वर्गों के साथ गठजोड़ कर रहे हैं। भीमा कोरेगांव में हुई घटनाओं के बाद
धार्मिक अल्पसंख्यकों, श्रमिकों और कई अन्य सामाजिक संगठनों
ने दलितों के साथ अपनी एकजुटता प्रदर्शित की। दलित, अतीत के
नायकों से प्रेरणा ग्रहण करने का प्रयास कर रहे हैं। हालिया घटनाक्रम से यह साफ है
कि वे भारतीय प्रजातंत्र में अपना यथोचित स्थान पाने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं। उन
पर हिन्दू दक्षिणपंथी समूहों का आक्रमण, दलितों की
महत्वाकांक्षाओं को दबाने और कुचलने का प्रयास है। (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश
हरदेनिया)