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December 15, 2017

Hindi article-Electoral alliances and the Left


आम चुनाव 2009: वामपंथियों को धर्मनिरपेक्ष-प्रजातांत्रिक गठबंधन का हिस्सा बनना चाहिए -राम पुनियानी पिछले कुछ वर्षों में भाजपा की ताकत में जबरदस्त इजाफा हुआ है, विशेषकर 2014 के आम चुनाव में उसकी शानदार जीत के बाद से। वह कई राज्यों में सत्ता में है और उसे ऐसे क्षेत्रों में भी चुनावों में विजय मिल रही है, जहां पहले उसका कोई अस्तित्व ही नहीं था। भाजपा की इस विजय यात्रा से अन्य राजनीतिक दल अचंभित हैं। इस संदर्भ में कामरेड प्रकाश कारत का साक्षात्कार (द हिन्दू, नवंबर 29, 2017) महत्वपूर्ण है। अपने साक्षात्कार में कामरेड कारत कई ऐसे प्रश्न उठाते हैं जिन पर गहराई से विचार किया जाना आवश्यक है। वे कहते हैं कि भाजपा शनैः शनैः देश की सबसे बड़ी और प्रभावी पार्टी बनकर उभर रही है और उसने कांग्रेस का स्थान ले लिया है। इस तथ्य को भविष्य की किसी भी योजना को बनाते समय ध्यान में रखा जाना चाहिए। वे यह भी कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में भाजपा की नीतियों के कारण उसके पारंपरिक वोट बैंक, जिसमें मध्यम वर्ग और छोटे व्यवसायी शामिल हैं, का पार्टी से मोहभंग हुआ है। श्रमिक और किसान परेशानहाल हैं और उनके आंदोलन मीडिया की सुर्खियां बन रहे हैं। दलित भी संघर्ष की राह पर चल पड़े हैं और विश्वविद्यालयों के कैम्पसों में असंतोष की सुगबुगाहट है। ऐसी स्थिति में, कामरेड कारत के अनुसार, भाजपा का विकल्प प्रस्तुत करना आवश्यक है। वे कहते हैं कि आज सभी को मिलकर संघर्ष करने की जरूरत है और विभिन्न सामाजिक समूहों को एक मंच पर आना चाहिए। यह बिलकुल ठीक है। परंतु कामरेड कारत का यह निष्कर्ष एकदम गलत प्रतीत होता है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी किसी ऐसे गठबंधन का हिस्सा नहीं बन सकती जिसमें कांग्रेस भी हो। उनका यह भी कहना है कि भाजपा सरकार फासीवादी नहीं है बल्कि एकाधिकारवादी और सांप्रदायिक है और अपने विरोधियों पर इस तरह के हमले करा रही है, जो फासीवादियों से मिलते-जुलते हैं। कारत शायद वर्तमान स्थिति की भयावहता और भविष्य में उसके कारण खड़े होने वाले खतरों को पूरी तरह समझ नहीं सके हैं। सच यह है कि देश धीरे-धीरे आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे को लागू करने की ओर बढ़ रहा है। पिछले तीन वर्षों के घटनाक्रम को केवल चुनावी दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए। उससे हमारी संस्थाएं, हमारे विश्वविद्यालय, हमारी शिक्षा प्रणाली और आर्थिक नीतियां गहरे तक प्रभावित हुई हैं। हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा का वर्चस्व बहुत तेज़ी से बढ़ा है। राममंदिर, गोमाता और लव जिहाद जैसे पहचान से जुड़े मुद्दों का समाज में बोलबाला हो गया है। गोरक्षा के नाम पर देशभर में कई मुसलमानों की हत्याएं हुई हैं। ऊना में दलितों की सार्वजनिक रूप से बर्बर पिटाई को सारे देश ने देखा है और मवेशियों के व्यापार से जुड़े लोगों ने अपनी जानें गंवाईं हैं। कश्मीर में अतिराष्ट्रवादी नीतियों के कारण भारी संख्या में लोगों की जानें गई हैं और वे घायल हुए हैं। सरकारी पुरस्कारों को लौटाकर बुद्धिजीवियों, कलाकारों और लेखकों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि देश में बढ़ती असहिष्णुता उन्हें स्वीकार्य नहीं है। धार्मिक अल्पसंख्यकों को इस हद तक निशाना बनाया जा रहा है कि मुस्लिम समुदाय के कई प्रमुख चिंतकों ने यह कहना प्रारंभ कर दिया है कि मुसलमानों को चुनावों के चक्कर में पड़ना ही नहीं चाहिए क्योंकि अगर वे ऐसा करते हैं तो इससे समाज और धुव्रीकृत होता है। हमारा मीडिया या तो कार्पोरेट मुगलों के नियंत्रण में है या वह सत्ताधारियों के समक्ष इतना झुक गया है कि वह श्रमिकों, किसानों और दलितों के संघर्षों को तवज्जो ही नहीं दे रहा है। क्या यह केवल एकाधिकारवाद है, जैसा कि कामरेड कारत कहते हैं। एकाधिकारवाद ऊपर से थोपा जाता है। भारत में आज आम लोगों को गोलबंद कर उन्हें प्रजातंत्र का खात्मा करने के उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। हिन्दू राष्ट्रवादी गुंडे सड़कों पर तांडव कर रहे हैं। हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा ने देश को जकड़ लिया है। इस एजेंडा को लागू करने में आम लोगों की भागीदारी से यह स्पष्ट है कि वर्तमान सरकार को केवल एकाधिकारवादी नहीं कहा जा सकता। भाजपा सरकार आज क्या कर रही है? वह कार्पोरेट दुनिया को पूरा सहयोग और समर्थन दे रही है, वह देश की प्रतिष्ठित संस्थाओं की स्वायत्तता को समाप्त कर रही है, कश्मीर में अतिराष्ट्रवादी नीतियां लागू की जा रही हैं, विश्वविद्यालयों को हिन्दू राष्ट्रवाद का अड्डा बनाने की कोशिशें हो रही हैं, वंदे मातरम गाना होगा और भारत माता की जय कहना होगा जैसी बातें कहकर अल्पसंख्यकों को आतंकित किया जा रहा है। इस सबके लिए निचले स्तर पर आरएसएस के विभिन्न संगठन सक्रिय हैं और शीर्ष स्तर से उन्हें केन्द्र की भाजपा सरकार का समर्थन मिल रहा है। लोगों में असंतोष और आक्रोश तो है परंतु समाज का एक हिस्सा नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व की चकाचोंध में इतना खो गया है कि उसे यथार्थ दिखलाई ही नहीं पड़ रहा है। यह सही है कि मोदी का प्रभामंडल धीरे-धीरे क्षीण हो रहा है परंतु अब भी वह बहुत चमकदार है। इन सब कारणों से हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा के विरूद्ध संघर्ष केवल चुनावी मैदान तक सीमित नहीं रह सकता। हमें सांस्कृतिक, आर्थिक और अन्य कई मोर्चों पर भी इस विचारधारा से मुकाबला करना होगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि चुनावी मोर्चों पर विजय का बहुत महत्व है। संघ लगभग पिछली एक सदी से देश में काम कर रहा है परंतु उसके प्रभाव में 1980 के बाद से तेजी से वृद्धि हुई है। वह पहले भी समाज का साम्प्रदायिकीकरण करने की कोशिश करता रहा है परंतु अब उसे इस कार्य में सफलता मिल रही है। सरकार और प्रशासन उसकी राह प्रशस्त कर रहे हैं। अगर हमें हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष बहुवादी चरित्र को जीवित रखना है तो हमें संघ और भाजपा जैसी राजनीतिक शक्तियों को दरकिनार करना ही होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि कांग्रेस की ऐसी कई नीतियां हैं जिनसे सहमत होना कठिन है। परंतु यूपीए-1 का न्यूनतम सांझा कार्यक्रम एक व्यापक गठबंधन का आधार बन सकता है। जाहिर है कि इस गठबंधन के निर्माण की राह में कई बाधाएं हैं। बिहार महागठबंधन प्रयोग कुछ अर्थों में सफल रहा है तो कुछ अर्थों में असफल भी। कुछ पार्टियों को एक मंच पर इसलिए नहीं लाया जा सकता क्योंकि उनके सामाजिक आधार एक-दूसरे को काटते हैं परंतु फिर भी ऐसे कई राजनीतिक दल हैं जिनके साथ हाथ मिलाकर वामपंथी पार्टियां हिन्दू राष्ट्रवाद के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला कर सकती हैं। श्रमिकों, दलितों और किसानों के हितों से समझौता किए बगैर, आर्थिक नीतियों पर अंतरिम सहमति बनाई जा सकती है। गैर-सांप्रदायिक राजनीतिक दलों के लिए भारतीय राजनीति में उपलब्ध स्थान सिकुड़ता जा रहा है। परंतु जो भी स्थान उन्हें उपलब्ध है, उसका इस्तेमाल कर वे हिन्दू राष्ट्रवाद का मुकाबला कर सकते हैं। हिन्दू राष्ट्रवादी नीतियां केवल अधिनायकवादी नहीं हैं। वे फासीवाद से मिलतीजुलती हैं। उनका मुकाबला करने के लिए एक संयुक्त गठबंधन बनाया जाना आवश्यक है और कांग्रेस को उसका सदस्य होना ही चाहिए। (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)