- राम पुनियानी
पिछले कुछ सालों से,
10
नवंबर के आसपास, भाजपा, टीपू सुल्तान पर कीचड़ उछालने का अभियान चलाती रही है। पिछले तीन सालों से
कर्नाटक सरकार ने आधिकारिक तौर पर टीपू की जयंती मनाना शुरू कर दिया है। टीपू
सल्तान देश के एकमात्र ऐसे राजा हैं जिन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ते हुए अपनी
जान गंवाई। इस साल भी, 10 नवंबर के कुछ पहले, केन्द्रीय मंत्री
और कर्नाटक भाजपा के वरिष्ठ नेता अनन्त कुमार ने टीपू जयंती समारोह में भाग लेने
का कर्नाटक सरकार का निमंत्रण ठुकरा दिया। उन्होंने कहा कि टीपू सुल्तान बलात्कारी,
दुष्ट
और कट्टरपंथी था और उसने कई कत्लेआमों को अंजाम दिया था। कुछ स्थानों पर भाजपा ने
टीपू की जयंती मनाए जाने का विरोध भी किया।
समाज के कुछ तबके
यह मानते हैं कि टीपू सुल्तान एक आततायी शासक था, जिसने हिन्दुओं को
जबरदस्ती मुसलमान बनाया। यह भी आरोप लगाया जाता है कि उसने कन्नड़ भाषा की कीमत पर
फारसी को बढ़ावा दिया। ऐसा आरोप है कि अपने सेनापतियों को लिखे अपने पत्रों में,
जिनके
बारे में यह दावा किया जाता है कि वे ब्रिटिश सरकार के कब्जे में हैं, टीपू ने यह लिखा था
कि काफिरों का इस धरती पर से नामोनिशान मिटा दिया जाना चाहिए। टीपू के मुद्दे पर
समय-समय पर विवाद उठते रहे हैं। कुछ सतही जानकारियों के आधार पर चंद लोग यह दावा
करते हैं कि उसने सैंकड़ों मंदिरों को ध्वस्त किया और हज़ारों ब्राह्मणों को मौत के
घाट उतार दिया।
यह दिलचस्प है कि
भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द, जो संघ की विचारधारा से ताल्लुक रखते हैं,
ने
हाल में अपनी कर्नाटक यात्रा में टीपू की जमकर प्रशंसा की। उन्होंने कहा,
‘‘टीपू
सुल्तान अंग्रेज़ों से लड़ते हुए एक नायक की मौत मरे। उन्होंने रॉकेटों का विकास
किया और युद्ध में उनका इस्तेमाल किया’’। राष्ट्रपति के इस कथन से भाजपा को धक्का
लगा और उसके कुछ प्रवक्ताओं ने यह दावा किया कि राष्ट्रपति का भाषण कर्नाटक सरकार
द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर तैयार करवाया गया था।
टीपू सुल्तान के
मुद्दे पर आरएसएस-भाजपा परिवार में भी मतभेद हैं। सन 2010 में चुनाव के ठीक
पहले, भाजपा नेता बीएस येदियुरप्पा ने टीपू सुल्तान की पगड़ी पहनकर, तलवार हाथ में लेकर
तस्वीरें खिंचवाईं थीं। सन 1970 के दशक में आरएसएस ने अपनी भारत-भारती
श्रृंखला के तहत प्रकाशित एक पुस्तिका में टीपू की प्रशंसा करते हुए उन्हें
देशभक्त बताया था।
कन्नड़ नाटककार गिरीश
कर्नाड टीपू के इतने जबरदस्त प्रशंसक हैं कि उन्होंने यह मांग की है कि बेंगलुरू
के हवाईअड्डे का नाम टीपू के नाम पर रखा जाना चाहिए। कर्नाड का यह भी कहना है कि
अगर टीपू सुल्तान हिन्दू होते तो उन्हें कर्नाटक में वही दर्जा मिलता जो शिवाजी को
महाराष्ट्र में मिला हुआ है।
टीपू सुल्तान को
राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि दिलवाने में टीवी सीरियल ‘‘स्वोर्ड ऑफ टीपू
सुल्तान’’ का महत्वपूर्ण योगदान है। भगवान गिडवानी की पटकथा पर आधारित इस सीरियल के
60 एपीसोड प्रसारित हुए थे, जिनमें ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ टीपू की
लंबी लड़ाई का चित्रण किया गया था। टीपू ने मराठाओं और हैदराबाद के निज़ाम से
पत्राचार कर उनसे यह अनुरोध किया था कि वे अंग्रेज़ों का साथ न दें। टीपू का यह
मानना था कि ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन भारत के लिए अहितकर होगा। अपनी इसी सोच के
चलते उन्होंने अग्रेज़ों के साथ कई लड़ाईयां लड़ी। सन 1799 के चैथे
अंग्रेज़-मैसूर युद्ध में वे मारे गए। कर्नाटक में उन पर लिखे हुए कई लोकगीत
प्रचलित हैं। वे राज्य के लोगों की स्मृति में आज भी जिंदा हैं। लोगों के मन में
उनके प्रति वही आदर भाव है जो शिवाजी के प्रति महाराष्ट्र के लोगों में है।
टीपू ने अपने दरबार
की भाषा फारसी को क्यों बनाया? यहां यह याद रखा जाना आवश्यक है कि उस समय
भारतीय उपमहाद्वीप के कई राजदरबारों की भाषा फारसी थी। शिवाजी भी फारसी में
पत्राचार किया करते थे और इसके लिए उन्होंने मौलाना हैदर अली को अपना प्रमुख सचिव
नियुक्त किया था। टीपू धार्मिक कट्टरवादी नहीं थे, जैसा कि आज बताया
जा रहा है। टीपू की नीतियां धर्म से प्रेरित नहीं थीं। कामकोटि पीठम के शंकराचार्य
को लिखे अपने पत्र में उन्होंने शंकराचार्य को ‘जगत गुरू’ के नाम से संबोधित
किया था। उन्होंने कामकोटि पीठम को ढेर सारी धन दौलत भी दान में दी थी।
पटवर्धन की मराठा
सेना द्वारा श्रेंगेरी मठ में लूटपाट किए जाने के बाद टीपू ने इस मठ का पुराना
वैभव बहाल किया। उनके शासनकाल में 10 दिन का दशहरा उत्सव मैसूर की सामाजिक
जिंदगी का अभिन्न हिस्सा था। अपनी पुस्तक ‘‘सुल्तान ए खुदाद’’
में
सरफराज शेख़ ने ‘टीपू का घोषणापत्र’ प्रकाशित किया है। इस घोषणापत्र में टीपू
कहते हैं कि वे धार्मिक आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं करेंगे और अपनी अंतिम सांस
तक अपने साम्राज्य की रक्षा करेंगे।
यह आरोप लगाया जाता
है कि टीपू ने कुछ समुदायों को प्रताड़ित किया। यह सही है। परंतु इसका कारण धार्मिक
न होकर राजनीतिक था। इतिहासकार केट ब्रिटिलबैंक लिखती हैं, ‘‘यह उनकी धार्मिक
नीति नहीं थी बल्कि लोगों को सज़ा देने की नीति थी’’। उन्होंने उन
समुदायों को निशाना बनाया जिनके बारे में वे यह मानते थे कि वे राज्य के प्रति
वफादार नहीं हैं। ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने सिर्फ हिन्दू समुदायों को प्रताड़ित
किया। उन्होंने महादवी जैसे कुछ मुस्लिम समुदायों को भी अपना निशाना बनाया। इसका
कारण यह था कि ये समुदाय अंग्रेज़ों के समर्थक थे और ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के
घुड़सवार दस्ते में इन समुदायों के बहुत सारे व्यक्ति शामिल थे। एक अन्य इतिहासविद
सुसान बैली लिखती हैं कि अपने राज्य के बाहर के हिन्दुओं और ईसाईयों पर उनके हमलों
को उनकी राजनीति का भाग माना जाना चाहिए क्योंकि अपने राज्य के भीतर इन समुदाय के
लोगों से उनके निकट और सौहार्दपूर्ण संबंध थे।
उनके वे तथाकथित
पत्र, जो ब्रिटिश सरकार के कब्जे में हैं, के बारे में जो कुछ
कहा जा रहा है उसे भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की ज़रूरत है। अभी तो यह भी
पक्का नहीं है कि वे पत्र असली हैं या नहीं।
हम किसी भी व्यक्ति
को उसकी पूर्णतः में ही देख-समझ सकते हैं। जब पुर्णैया नामक एक ब्राह्मण उनके
मुख्य सलाहकार थे और वे कांची कामकोटि पीठम के शंकराचार्य के प्रति सम्मान भाव
रखते थे, तब इस बात की संभावना बहुत कम रह जाती है कि उन्होंने हिन्दुओं का
कत्लेआम करवाया होगा। अंग्रेज़ उनसे बहुत नाराज़ थे क्योंकि वे अंग्रेज़ों के भारत
में बढ़ते प्रभाव के कड़े विरोधी थे और उन्होंने मराठाओं और निज़ाम से यह कहा था कि
हमें अपने झगड़े आपस में मिल बैठ कर सुलझाने चाहिए और अंग्रेज़ों को इस देश से बाहर
रखना चाहिए। अंग्रेज़ों ने टीपू सुल्तान का दानवीकरण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
इस योद्धा और शासक के बारे में हमें संतुलित ढंग से सोचना होगा। हमें इस बात को
ध्यान में रखना होगा कि टीपू ने प्राणपन से अंग्रेज़ों का विरोध किया क्योंकि
उन्हें एहसास था कि भारत पर जिन शक्तियों ने कब्ज़ा जमाया, उनसे अंग्रेज़ कई
मामलों में एकदम भिन्न थे। एक तरह से टीपू सुल्तान अंग्रेज़ों के खिलाफ भारतीय
प्रतिरोध के अग्रदूत थे।
सांप्रदायिक ताकतें पेंडुलम की तरह टीपू को सिर-आंखों
पर बिठाने के बाद अब उन पर कालिख पोतने में जुटी हुई हैं। यह सब केवल और केवल उनकी
राजनीति का हिस्सा है। (अंग्रेजी से हिन्दी
रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)