Pratirodh
A convention of writers, artists, thinkers, academicians and all conscientious people
Resistance against attacks on reason, democracy & composite culture
Come together to raise your voice
Initiators
Ashok Vajpeyi, Om Thanvi, MK Raina and You
November 1, 2015
Time: 2 pm
Venue: Mavlankar Hall, Constitution Club
देश में सांप्रदायिक उन्माद नया नहीं है, न दलितों और अल्पसंख्यकों का शोषण। न रचनाकारों की अवज्ञा और अपमान। चालीस बरस पहले नागरिक अधिकारों के पतन में इमरजेंसी एक मिसाल मानी गई थी। लेकिन जब हम समझने लगे कि शासन की भूमिका में काले दिनों का वह पतन इतिहास की चीज हो गया, नागरिकों पर संकट का नया पहाड़ आ लदा है।
मौजूदा संकट ज्यादा भयावह और खतरनाक है क्योंकि यह ऐलानिया नहीं है; इसलिए कोई आसानी से इसकी जिम्मेदारी भी नहीं लेता। जबकि इसके पीछे एक दकियानूसी, समाज को बांटने और घृणा की खाई में धकेलने वाली वह हिंसक मानसिकता सक्रिय जान पड़ती है जिसे देश ने कभी बंटवारे के वक्त देखा-भोगा था और जो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की सरेआम हत्या में बामुराद हुई।
वह मानसिकता अब सर्वसत्तामान है। उसके चलते विचार, असहमति, विरोध, बहुलता और सहिष्णुता के वे मूल्य खतरे में हैं जो किसी भी प्रजातंत्र के प्राण होने चाहिए। शिक्षा और संस्कृति जैसे क्षेत्र अब जैसे हाशिये के तिरस्कृत विषय हैं। समाज-विरोधी और अलगाववादी शक्तियां सत्ता के साथ कदमताल कर रही हैं; धार्मिक प्रतीकों को सार्वजनिक प्रतीक बनाकर लोगों के घर जलाए जा रहे हैं; अल्पसंख्यकों और दलितों को जिन्दा जलाया जा रहा है; घर-वापसी, लव-जेहाद जैसे तुच्छ अभियान उच्च संरक्षण में अंजाम दिए गए हैं, जिनसे समुदायों में अभूतपूर्व हिंसा भड़की है; असहमति या विरोध जताने वालों को देशद्रोही करार दिया जाने लगा है; कटु सत्य बोलने और लिखने वालों को पंगु बनाया जा रहा है, मौत के घाट उतारा जा रहा है; कार्टून से लेकर किताब, सिनेमा, कला, यहाँ तक भी खाद्य भी प्रतिबंधित घोषित किए जा सकते हैं - किए जा रहे हैं; रचनात्मक इदारों में अयोग्य लोग रोप दिए गए हैं; तोड़े-मरोड़े इतिहास के पाठ्यक्रम बनाए और पढ़ाए जाने लगे हैं; लोगों की रुचियों, खान-पान, पहनावे और अभिव्यक्ति तक को नियंत्रित किया जा रहा है; समाज पर छद्म धार्मिकता, छद्म मूल्यबोध और छद्म सांस्कृतिक-बोध थोपा जा रहा है …
और हमारे रहनुमाओं को अपने फैशन, स्थानीय चुनावों और विदेश यात्राओं से फुरसत नहीं कि इस अनीति, अन्याय और अनर्थ को शासन से सीधे मिल रही शह और संरक्षण से बचा सकें। जाहिर है, सरकार की नीयत और कार्यक्षमता संदेह के गहरे घेरे है।
यह संकट अभूतपूर्व है, नियोजित है और इसमें निरंतरता है; इतना ही नहीं इसके पीछे एक ही मानसिकता या विचारपद्धति है। इसलिए, स्वाभाविक ही, स्वस्थ लोकतंत्र और देश की मूल्य-चेतना से सरोकार रखने वाले लोग आहत और चिंतित हैं।
आप सहमत होंगे कि समाज और अभिव्यक्ति पर इस चौतरफा हमले के खिलाफ अपनी एकजुटता और प्रतिरोध के इजहार के लिए हम लोग १ नवम्बर (रविवार) को ३ बजे मावलंकर हॉल, कांस्टीट्यूशन क्लब में जमा हों - और अपनी बात, अपनी आवाज और अपना इकबाल बुलंद करें।