हेडगेवार का पथ: मिथक और यथार्थ
‘आधुनिक भारत के निर्माता: डाक्टर केशव बलिराम हेडगेवार’ के बहाने चन्द बातें
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(Photo : Courtesy – http://www.flickr.com)
राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के आनुषंगिक संगठन भाजपा के केन्द्र में तथा कई राज्यों में
सत्तारोहण के बाद शिक्षा जगत उनके खास निशाने पर रहा है। विभिन्न अकादमिक
संस्थानों में अपने विचारों के अनुकूल लोगों की महत्वपूर्ण पदों पर
नियुक्ति करने से लेकर, स्वतंत्रामना अकादमिशियनों पर नकेल डालने के
प्रयासों से लेकर, पाठयक्रमों में बदलावों तक इसे कई तरीकों से अंजाम दिया
जा रहा है। पिछले दिनों केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्राी सुश्री इराणी ने संघ
से सम्बधित शैक्षिक संगठनोें से प्रस्तावित नयी शिक्षा नीति के मसविदे के
बारे में बात की, जिसका प्रारूप नवम्बर में रखे जाने की योजना है। इसके
अलावा विभिन्न संस्थानों और विश्वविद्यालयों में खाली हुए या होने वाले
पदों पर नियुक्तियों के मसलों पर भी बात हुई।
सूबा
राजस्थान – जो केन्द्र में सत्तासीन भाजपा सरकार की कई नीतियों के लिए एक
किस्म की प्रयोगशाला की तरह काम करता रहा है, फिर चाहे श्रमिक कानूनों में
बदलावों का मामला हो, पंचायतों के चुनावों में खड़े रहने के लिए न्यूनतम
शैक्षिक योग्यता तय करने का मामला हो – एक तरह से शिक्षा जगत में आसन्न
बदलावों के मामले में भी एक किस्म की ‘मिसाल’ कायम करता दिख रहा है।
स्कूलों के रैशनलायजेशन/ यौक्तिकीकरण के नाम पर सतरह हजार सरकारी स्कूलों
को आदर्श स्कूल में मिला देने का मामला हो या पूर्ववर्ती अशोक गहलोत सरकार
द्वारा कायम हरिदेव जोशी पत्राकारिता विश्वविद्यालय को बन्द करने का निर्णय
हो या राजीव गांधी ट्राइबल युनिवर्सिटी को उदयपुर से डुंगरपुर जिले के
बनेश्वर धाम जैसे अधिक दुर्गम इलाके में भेजने का मामला हो, उसने इस दिशा
में कई कदम बढ़ाए है। अब अपने ताज़े फैसले में उसने संघ के संस्थापक सदस्य
केशव बलिराम हेडगेवार की जीवनी को खरीदने की सिफारिश राज्य के कालेज
पुस्तकालयों की है। अपने सर्क्युलर में शिक्षा विभाग की तरफ से कहा गया है
कि कालेज के पुस्तकालय अकादमिक राकेश सिन्हा द्वारा लिखित ‘आधुनिक भारत के
निर्माता: डाक्टर केशव बलिराम हेडगेवार’ नाम से किताब को पुस्तकालय हेतु
मंगवा लें।
प्रस्तुत
निर्णय की तीखी प्रतिक्रिया हुई है, राज्य सरकार पर आरोप लगा है कि वह
शिक्षा के केसरियाकरण को बढ़ावा दे रही है। प्रस्तुत कदम को ‘देश के युवाओं
के मनमस्तिष्क पर हिन्दू राष्ट्र की मानसिकता लादने के तौर पर, सामाजिक
विभाजन पैदा करने के े कदम के तौर पर’ देखा जा रहा है। यह भी आरोप लगे हैं
कि उसका मकसद है युवाओं के मनों को हिन्दू बनाम गैरहिन्दू के आधार पर
बांटना, उपरी तौर पर सांस्क्रतिक और धार्मिक तौर पर बहुवचनी दिखना, मगर एक
ऐसे समाज को प्रचारित करना जो हिन्दू समाज व्यवस्था से निर्धारित हो।’
याद
रहे कि प्रस्तुत किताब का प्रकाशन भाजपा की अगुआई वाले राजग गठबन्धन सरकार
के पहले दौर में – वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में हुआ था, तथा
प्रस्तुत किताब के विमोचन समारोह में स्वयंसेवक प्रधानमंत्राी,
उपप्रधानमंत्राी से लगायत तत्कालीन संघ सुप्रीमो सुदर्शन तथा कई सारे
वरिष्ठ मंत्राीगण उपस्थित थे लेकिन इन सबके बावजूद यह बात छिप नहीं पायी थी
कि प्रस्तुत किताब में हेडगेवार के मूल्यांकन के बारेमें संघ के चन्द
वरिष्ठ नेता नाखुश थे । प्रस्तुत किताब मंे किये गये हेडगेवार के मूल्यांकन
को लेकर एक समय संघ के मुखपत्रा ‘आर्गनायझर’ के सम्पादक रहे श्री के आर
मलकानी द्वारा उठाये गये आक्षेपों के बारेमें राजधानी के प्रमुख अंग्रेजी
दैनिक (टाईम्स आफ इण्डिया,2 अप्रैल 2003, फाउंडर्स बायोग्राफी स्प्लिटस
परिवार, अक्षय मुकुल) ने समाचार भी दिया था।
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वीं सदी के अन्तिम दशक में सोविएत संघ के पतन के बाद दुनिया भर में जिन
वास्तविक या छदम पहचानों के सवालों पर आन्दोलनों को नयी मजबूती मिली उनमें
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अगुआई में हिन्दोस्तां की सरजमीं पर खड़े हुए
हिन्दुत्व के प्रोजेक्ट का विशेष महत्व है। गौरतलब है कि अपने तमाम
आनुषंगिक संगठनों के जरिये ‘समाज का संगठन’ करने में लिप्त इस ‘सांस्कृतिक
संगठन’ की गतिविधियों को समझने, जानने की ललक विद्धानों तथा विदुषियों के
बीच बढ़ी है। वैसे स्वतंत्रा विश्लेषकों के अलावा संघ परिवार की विचारधारा
से सम्बद्ध लोग भी अपने तईं इस बहस का एक कोना बने रहने के लिए निजी तथा
सरकारी संस्थानों के जरिये सक्रिय हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय
राजनीतिविज्ञान के प्रवक्ता रहे श्री राकेश सिन्हा द्वारा लिखी राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के संस्थापक सदस्य डा केशव बलिराम हेडगेवार की जीवनी इसी
सिलसिले की एक कड़ी के तौर पर सामने आती है। /डा केशव बलिराम हेडगेवार,
राकेश सिन्हा, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, 2003ए पृष्ठ संख्या: 220ए कीमत:
95 रूपये/ मई 2014 में केन्द्र में भाजपा की सरकार के गठन के बाद प्रस्तुत
किताब का अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ था और यह घोषणा भी की गयी है कि
संघ के दो शीर्षस्थ नेताओं – माधव सदाशिव गोलवलकर और बालासाहब देवरस – के
बारे में भी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के बैनरतले जीवनियों का प्रकाशन
‘आधुनिक भारत के निर्माता’ की अगली कड़ी के तौर पर होगा। / देखें, टाईम्स आफ
इंडिया, 4 अप्रैल 2015/
इसमें
कोई दोराय नहीं कि डा हेडगेवार का समूचा जीवनचरित्रा एक व्यापक अनुसंधान
का विषय है जिसमें उनके जीवन के दो गुणात्मक भिन्न दौर गंभीर अध्येताओं के
लिए हमेशा ही एक खोज का विषय बने रह सकते हैं। इस मायने में डा हेडगेवार की
जिन्दगी तथा एक राजनीतिक प्रकल्प के तौर पर ‘हिन्दुत्व’ की सैद्धान्तिक
प्रस्थापना रखनेवाले श्री विनायक दामोदर सावरकर की जीवनयात्रा में एक
समानता दिखती है। ये दोनों शख्स 20 सदी की तीसरी दहाई के पूर्वार्द्ध तक
अंग्रेजों के खिलाफ खड़े व्यापक साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन का हिस्सा बने
दिखते हैं। श्री हेडगेवार अगर कांग्रेस के मंच से इस अंजाम देते हैं तो
श्री सावरकर ‘अभिनव भारत सोसायटी’ जैसे उग्र संगठनों के जरिये सक्रिय रहते
हैं और फिर तीसरी दहाई में वे भारतीय राष्ट्र की मुक्ति के स्थान पर
‘हिन्दु राष्ट्र की मुक्ति के प्रवक्ता बन जाते हैं।
वैसे
डा हेडगेवार शीर्षक प्रस्तुत किताब की प्रस्तावना में यह दावा किया गया है
कि वह दरअसल ‘दस सालों का गहन अनुसंधान’ करके लिखी गयी है, प्रस्तावना में
यह भी लिखा गया है कि कांग्रेस तथा प्रगतिशील इतिहासकारों की उपेक्षा के
कारण हेडगेवार से जुड़ी तमाम बातें लोगों के सामने नहीं आ पायी हैं। लेकिन
पूरी किताब पढ़ने पर यह पता नहीं चल पाता कि वे ऐसे कौनसे गहन तथ्य हैं
जिन्हें प्रगतिशील इतिहासकारों ने छिपाये रखा था तथा इसके जरिये जनाब
हेडगेवार का सही चित्रा उभरने नहीं दिया। यह बात भी रेखांकित करनेलायक है
दस साल के कथित लम्बे रिसर्च के बाद लेखक ने जिन तथ्यों को हासिल किया है
उन अंशों तथा उद्धरणों को सन्दर्भित भी नहीं किया है ताकि जरूरत पड़ने पर
अन्य अध्येता इन अंशों/ उद्धरणों के मूल स्त्रोतों तक पहुंच सके। किताब के
अन्त में न सन्दर्भसूचि दी गयी है और न ही पुस्तकसूचि दी गयी है ।
प्रणालीविज्ञान
की इस गंभीर कमी को अनायास नहीं कहा जा सकता और जाहिरा तौर पर यह मानने का
पर्याप्त आधार बनता है कि यह समूची किताब हेडगेवार को ‘पोलिटिकली करेक्ट’
अन्दाज में पेश करने के लिए लिखी गयी है तथा जिसका मकसद एक संगठन के तौर पर
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आजादी के आन्दोलन से रही दूरी की कडवी हकीकत
पर परदा डालना है। कुल मिला कर हेडगेवार को एक ऐसे नेता के तौर पर पेश किया
गया है गोया बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में वे गांधी के बराबर की खड़े हों।
हेडगेवार के जीवन से जुड़े जो महत्वपूर्ण पहलू हैं उनके बारेमें महज उद्धरण
दिया गया है, वह उद्धरण कहां से आया, किसने रेकार्ड किया यह बात स्पष्ट
नहीं होती। इसी के तहत डा हेडगेवार की सुभाषचंद्र बोस से मुलाकात का भी
जिक्र किया गया है तथा अन्य क्रांतिकारियों के साथ मुलाकात की भी चर्चायें
की गयी हैं। पेज 205 पर अम्बेडकर द्वारा संघ को दिये गये सर्टिफिकेट तथा
गांधी द्वारा दी गयी शाबासी का भी जिक्र आता है। निश्चित ही इन तमाम
मुलाकातों के जिक्र के पीछे एक डिजाइन दिखता है, जिसका मकसद इन परम्पराओं
का दोहन करना ही है। गांधी द्वारा दी गयी कथित शाबासी को बिना सन्दर्भित
किये पेश किया जाता है लेकिन 1948 में महात्मा गांधी द्वारा संघ के काम की
हिटलर मुसोलिनी के साथ की गयी तुलना पर चुप्पी ही बरती जाती है जिसका जिक्र
गांधी के सचिव प्यारेलाल की डायरी में मिलता है।
यह
बात समझ से परे है कि डा हेडगेवार की अब तक छपी विभिन्न जीवनियों का जिक्र
करनेवाली यह किताब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रकाशित डा हेडगेवार
के सबसे पहले आधिकारिक चरित्रा ‘संघवृक्ष के बीज- डा केशवराव हेडगेवार’ जो
संघ कार्यकर्ता सी पी भिशीकर द्वारा लिखी गयी है उसका उल्लेख करना भी भूल
जाती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि श्री भिशीकर ने संघ निर्माण के पीछे
जिन तकाजों का उल्लेख हेडगेवार के हवाले से इस किताब में किया है उसका
उल्लेख आज के माहौल में संघ परिवार के लिए ‘पोलिटिकली करेक्ट’ ना मालूम
पड़ता हो। बात यही है। इस किताब में श्री भिशीकर लिखते हैं कि संघ की
स्थापना के बाद डा साहब अपने भाषणों में हिंदू संगठन के बारेमें ही बोला
करते थे। सरकार पर प्रत्यक्ष टीका नहीं के बराबर रहती थी ( पृष्ठ 24, सन
1966, दिल्ली) यही भिशीकर अपनी किताब में पृष्ठ 20 पर बताते हैं कि डा
हेडगेवार ने विभिन्न शाखाओं को निर्देश दिया था कि वे नमक सत्याग्रह से दूर
रहें।
लेखक
की चुनिन्दा विस्मृति (selective amnesia) का मामला महज यहीं तक सीमित नहीं
है वह डा हेडगेवार को स्थापित करने के चक्कर में संघ के पांच संस्थापकों
के नाम का भी ठीक से उल्लेख नहीं करता। 1925 में विजयादशमी के दिन जब संघ
की स्थापना की गयी तो डा हेडगेवार के अलावा उपस्थिति चार अन्य लोग थे: डा
बी एस मुंजे, डा एल वी परांजपे, डा बी.बी. थलकर और बाबूराव सावरकर। इन सभी
का नामोल्लेख इसलिये नहीं किया जाता क्योंकि ये सभी हिन्दु महासभा के
कार्यकर्ता थे तथा सभी जानते हैं कि हिन्दु महासभा तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ के आपसी सम्बन्ध बहुत सौहार्दपूर्ण नहीं रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ को तराशने में डा बी एस मुंजे का तो विशेष योगदान था जिन्होंने इटली
की अपनी यात्रा में मुसोलिनी से मुलाकात की थी तथा फासी संगठन का नजदीकी से
अध्ययन किया था और उसी के मुताबिक संघ को ढालने के लिए उन्होंने विशेष
कोशिश की थी। मार्जिया कोसोलारी जैसी विदुषियों ने अभिलेखागारों के अध्ययन
से डा मंुजे की इटली यात्रा तथा संघ निर्माण में उनके योगदान पर बखूबी
रौशनी डाली है। जाहिरसी बात है कि डा हेडगेवार को महान देशभक्त साबित करना
है, तो किसी भी सूरत में उनके प्रयासों और प्रेरणाओं के विदेशी स्त्रोतों
को, खासकर ऐसे स्त्रोत जो प्रगट रूप में मानवद्रोही दिखते हों, उन्हें
ढंकना ही जरूरी समझा गया होगा।
हेडगेवार
को महान देशभक्त घोषित करने की इस कवायद में किताब न इस बात को समझा पाती
है कि आखिर पहले से चले आ रहे हिन्दु महासभा जैसे संगठनों के बावजूद अपने
इस संगठन को खड़ा करने तथा उसे विस्तारित करने में जनाब हेडगेवार की
सांगठनिक क्षमता के तौर पर कुशलता क्या थी, न उन विशिष्टताओं को चिन्हित कर
पाती है जिसके चलते प्रस्तुत संगठन इतना विशाल आकार ग्रहण कर सका ? एक बात
जिस पर निश्चित ही ध्यान देने की आवश्यकता है ( इस बात के बावजूद कि
हेडगेवार ने एक प्रतिक्रियावादी संगठन की नींव डाली) कि
‘हेडगेवार की वास्तविक मौलिकता यह थी कि उन्होंने सिस्टर निवेदिता द्वारा पहली बार रखे गये सुझाव पर बखूबी अमल कियाः: हर दिन एकत्रा होकर 15 मिनट तक प्रार्थना कीजिये और हिन्दु समाज एक अजेय समाज बन जाएगा। इसे बाद के दिनों में एक ऐसे अनुष्ठान तथा शारीरिक व्यायाम के तरीके के तौर पर विकसित किया गया जिसे एक ही साथ देश के अलग अलग हिस्सों में अमल में लाना था।’’ ( ‘खाकी शार्टस एण्ड सैफ्रन फलैगस, सुमित सरकार, तपन बसु तथा अन्य, ओरिएन्ट लांगमैन, पेज 16, 1993)
यह
हकीकत है कि डा हेडगेवार अंग्रेजी शासन के खिलाफ आवाज उठाने के लिए दो बार
जेल गये थे। लेकिन यह तथ्य उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि दोनों बार वे
कांग्रेस कार्यकर्ता के तौर पर जेल गये थे। संघ के स्थापना के बाद की उनकी
जेल यात्रा भी कांग्रेसी के तौर पर थी। एक संगठन के तौर पर राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ ने न कभी स्वतंत्राता आन्दोलन में शिरकत की न उसके लिए कोई
आवाहन किया। उल्टे जब जब ऐसा मौका आया तो चुप रहना या अंग्रेजों के सामने
झुक जाने में ही उसने गनीमत समझी। यह एक ऐसा अतीत है जिसके दस्तावेजी
प्रमाण उपलब्ध है कि संघ चाह कर भी इससे छुटकारा नहीं पा सकता।
यह
बात भी अकारण नहीं दिखती कि ‘महान देशभक्त’ के तौर पर किताब द्वारा किये
गये डा हेडगेवार के इस मूल्यांकन को लेकर संघ परिवार में भी गहरे मतभेद रहे
हैं। अगर किन्हीं देवेन्द्र स्वरूप को छोड़ दें जो यह मानते हैं कि संघ का
निर्माण देश की आजादी के लिए हुआ था तो बाकी ज्यादातर ‘हिन्दु राष्ट्र के
निर्माण’ के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को ही रेखांकित करते हैं। राकेश सिन्हा
की इस किताब पर संघ परिवार के एक अग्रणी नेता के आर मलकानी ने सवाल भी
उठाये थे जिनके बारेमें समाचार भी छपे थे ।
एक
क्षेपक के तौर पर यह भी बता दें कि किताब के प्रकाशन के दिनों में ही
हेडगेवार की पुण्यतिथि पर दिल्ली मंे हुए संघ परिवार के जलसे में चन्द
लोगों द्वारा ‘हेडगेवार के पथ पर आगे बढ़ने’ की अपील के बाद यह बात भी सामने
आयी थी कि संघ परिवार के वर्तमान तथा भविष्य को लेकर संघ आदर्शों से
प्रेरित विचारक भी चिंतित रहे हैं, जिन विचारों को संघ परिवार के करीबी
समझे जाने वाले पत्राकार रामबहादुर राय ने जुबां दी थी। उन्हीं दिनों
जनसत्ता के अपने नियमित स्तंभ ‘पड़ताल’ में ‘सम्प्रदाय में रूपांतरित होता
संघ’ ( 28 जून 2003) शीर्षक लेख के जरिये उन्होंने कई बातों को उठाया था।
उन्होंने बेबाकी से कहा था कि कहते हैं कि
‘देश की समस्याओं को हल करने के लिए एक सुविचारित प्रारूप संघ के पास नहीं है। संघ और उसके संगठनों में सामूहिक चिन्तन की कोई प्रक्रिया विकसित नहीं हुई है। इस कारण समस्याआंे पर गहन और व्यावहारिक चिन्तन का अभाव स्पष्ट दिखता है। …
’‘सत्ता
के मोह और उसकी माया’ में फंसे लोग और ‘संघ नेतृत्व के नैतिक प्रभाव की
क्षीणता’ आदि बातों के जरिये इशारों इशारों में ही उन्होंने संघ परिवार के
अग्रणियों से लेकर नीचले स्तर तक के कार्यकर्ताओं में तेजी से फैले भ्रष्ट
आचरण की ही ताईद की थी। उनकी दूसरी प्रस्थापना भी रेखांकित करनेवाली थी
जिसमें उन्होंने संघ के तीसरे सरसंघचालक बालासाहेब देवरस के हवाले से बताया
था कि किस तरह उपनिवेशवादविरोधी संघर्ष की उत्ताल तरंग के दिनों में
स्थापित हुआ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ‘स्वतंत्राता के आगमन का पूर्वाभास’
नहीं कर पाया और बकौल देवरस ‘ हम असावधान पकड़े गये ।’
अगर
हेडगेवार की अगुआई मंे नवनिर्मित संघ द्वारा हाथ में लिये गये पहले
सार्वजनिक काम पर गौर करें तो वह था नागपुर में रामनवमी समारोह के दौरान
हिन्दू नवयुवकों को लाठियों तथा अन्य हथियारों से लैस कर कथित तौर पर
हिन्दुओं को सुरक्षा प्रदान करना और हकीकत में मुसलमानों को आतंकित करना
तथा दूसरा महत्वपूर्ण काम था 1927 में गणेशजयंती के जुलूस को गाना बजाना
करते हुए नागपुर की उन सड़कों से ले जाना जिन्हें मस्जिद रोड कहा जाता है।
ंसाफ है इस कार्यक्रम का मकसद भी मुसलमानांे को आतंकित रखना ही था। अब अगर
निःष्पक्ष होकर गौर करें तो आप पाएंगे कि जब देश में उपनिवेशवाद विरोधी
संघर्ष की लहर चढ़ान पर थी, दोनों तरह के साम्प्रदायिक तत्वों की तमाम
कोशिशांे के बावजदू आम हिन्दू मुस्लिम जनता साझी लड़ाईयो में मसरूफ थी उस
समूचे कालखण्ड में संघ ने अपने आप को ‘हिन्दू संगठन’ ‘चरित्रा निर्माण’
जैसी वायवीय बातों पर ही केन्द्रित किया, हिन्दू संगठन को ही राष्ट्र संगठन
माना, जब 42 का जनसंग्राम छिड़ा तो इसी बात की मशक्कत की कि कहीं अंग्रेज
सरकार की कोपदृष्टि का शिकार न होना पड़े, ऐसे संगठन के चिन्तक बकौल
देवेन्द्र स्वरूप ‘..स्वतंत्राता हमारे बिना ही आ गई’ कह दें तो इसमें
आश्चर्य नहीं जान पड़ता।
वैसे
तो संघ परिवार के समूचे आजादी के आन्दोलन से अपने आप को अलग रखने की हकीकत
को लेकर ताउम्र कांग्रेसी रहे वल्लभभाई पटेल जैसे हिन्दुत्व द्वारा खोजे
गये नये ‘नायक’ से लेकर निःष्पक्ष कहे गये तमाम इतिहासकारों ने बहुत कुछ
लिखा है। लेकिन आज की तारीख में जब ‘पोलिटिकली करेक्ट’ दिखने के लिए संघ के
कई अगणी विचारक अपने तईं खुद को स्वतंत्राता आन्दोलन का वारिस घोषित करने
में जुटे हैं तब इस हकीकत पर नये सिरेसे रौशनी डालना जरूरी है। अपनी बात को
पुष्ट करने के लिए हम मुख्यतः संघ परिवार द्वारा प्रकाशित साहित्य को ही
अपना आधार बनायेंगे ।
स्वतंत्राताविरोधी
व्यापक जनसंघर्ष से उद्वेलित कार्यकर्ताओं के प्रति खुद डाक्टर हेडगेवार
का रूख क्या रहता था इसपर दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर गुरूजी की किताब ‘विचार
नवनीत’ रौशनी डालती है। संघ की कार्यशैली में अन्तर्निहित नित्यकर्म की
चर्चा करते वे लिखते हैं
‘‘.नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने की विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय समय पर देश में उत्पन्न परिस्थिति के कारण मन में बहुत उथलपुथल होती रहती है। सन 1942 में ऐसी उथल पुथल हुई थी । उसके पहले सन 1930-31 में भी आंदोलन हुआ था। उस समय कई लोग डाक्टरजी के पास गये। इस ‘शिष्टमंडल’ ने डाक्टरजी से अनुरोध किया था कि इस आंदोलन से स्वातंत्रय मिल जाएगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिये। उस समय एक सज्जन ने जब डाक्टरजी से कहा कि वे जेल जाने को तैयार हैं, तो डाक्टरजी ने कहा .. जरूर जाओ । लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलाएगा ?’’ उस सज्जन ने बताया ‘‘- दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं तो आवश्यकतानुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है।’’ तो डाक्टरजी ने कहा ‘‘ आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिये संघ का ही कार्य करने के लिये निकलो। घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गये न संघ का कार्य करने के लिये बाहर निकले ।’’ ( श्री गुरूजी समग्र दर्शन, खण्ड 4, नागपुर, प्रकाशन तिथि नहीं, पृष्ठ 39-40)
ेेहेडगेवार
के चिन्तन की सीमा महज इतनीही नहीं थी कि उन्होंने ‘हिन्दुओं के कमजोर
होने’ के औपनिवेशिक दावों का आत्मसातीकरण किया और हिन्दुओं को संगठित करने
में जुट गये। वे उन साझी परम्पराओं को देखने में भी असफल हुए जिन्होंने
सदियों से इस जमीन में आकार ग्रहण किया था। अंग्रेज विचारकों द्वारा अपने
राज को स्थायित्व प्रदान करने के लिए भारतीय इतिहास को हिन्दू, मुस्लिम और
ब्रिटिश कालखण्ड में बांटे जाने की साजिश को भी उन्होंने अपने व्यवहार से
वैधता प्रदान की । वैसे उनकी बड़ी सीमा इस मायने में भी दिखाई दी कि समूचे
हिन्दू समाज को एक अखण्ड माना और इस बात पर कभी गौर नहीं किया कि सदियों से
चली आ रही जातिप्रथा ने इन्सानों के एक बड़े हिस्से को इन्सान समझे जाने से
भी वंचित कर रखा है ।
अपने
तमाम आदर्शवाद के बावजूद हेडगेवार ने एक ऐसे संगठन की नींव डाली जो एक साथ
धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरोध में विशेषतः मुसलमानों के खिलाफ और शूद्रो
अतिशूद्रों में वर्णाश्रम की गुलामी के खिलाफ उठ रही हलचलों की मुखालिफत
करता था और चातुर्वर्ण्य आधारित समाज के निर्माण की आकांक्षा रखता था।
गौरतलब है कि हेडगेवार के प्रिय शिष्य तथा दूसरे सरसंघचालक अपनी दूसरी
पुस्तक ‘विचार सुमन’ में चातुवर्ण्य की हिमायत करते हुए लिखते हैं कि
‘‘ कोई भी ऐसी बात नहीं है जो यह सिद्ध कर सके कि इसने हमारे सामाजिक विकास में बाधा डाली है। असल में जातिप्रथा ने हमारे समाज की एकता बनाए रखने में मदद की है।‘‘
महिलाओं
के बारेमें भी उनके विचार परम्परा और संस्कृति की उनकी संकीर्ण समझदारी से
प्रवाहित होते हैं जिसमें वे नारी को माता के अलावा अन्य किसी पहचान में
देखना नहीं चाहते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की महिला शाखा ‘राष्ट्र
सेविका समिति’ के प्रथम सम्मेलन (1936) के उद्घाटन मंे उन्होंने कहा था,
‘‘ समिति का मकसद है हिन्दू राष्ट्र की तरक्की के लिए हिन्दू महिलाओं में जागृति लाना । यह राष्ट्र उन सभी का है जो जिनकी समान संस्कृति और परम्परा है और जो बहुसंख्यक हैं .. आदर्श हिन्दू नारी वो है जो हमारा धर्म, संस्कृति और राष्ट्र की रक्षा के लिए जरूरी संस्कारों को प्रदान करती है।’’
किताब
में देश की मुक्ति और हिन्दु राष्ट्र की मुक्ति के बीच भी काफी घालमेल
किया गया है। 1920 के दशक के शुरूआती दौर में कांग्रेस की अगुआई में जेल
जानेवाले हेडगेवार की भी किताब तारीफ करती है और 1925 में हिन्दु राष्ट्र
के निर्माण के लिये प्रतिबद्ध हेडगेवार का तो महिमामण्डन ही करती है। इन
दोनों के बीच तालमेल इस कदर बिठाया गया है कि भारतीय राष्ट्र की मुक्ति के
काम को धीरे से एक अध्याय के शुरूआत में हिन्दु राष्ट्रत्र् की मुक्ति के
समकक्ष रखा गया है। किताब कहती है कि ‘स्वतंत्राता की लड़ाई भी भारतीय
राष्ट्र के अस्तित्व एवं अस्मिता का प्रश्न था। अतः वह साम्राज्यवादविरोधी
आंदोलन में बेहिचक सहयोग के पक्षधर थे। संघ की स्थापना से पूर्व वह
क्रांतिकारी एवं बाद मंे कांग्रेसी कार्यकर्ता के नाते आंदोलनों में शरीक
हुए थे। परंतु विशिष्ट सैद्धांतिक मार्ग अपना कर जब उन्होंने एक अलग संगठन
बनाया एवं उसे अखिल भारतीय स्वरूप देने में व्यस्त थे तब भी उनकी प्रकृृति
एवं दृष्टिकोण में अन्तर नहीं आया।’’… ( पेज 88) इसके अगले ही अनुच्छेद में
शब्दों की बाजीगरी करते हुए ‘भारतीय राष्ट्र’ को हिन्दु राष्ट्र से
प्रतिस्थापित किया गया है जिसमें कहा गया है कि ‘डा हेडगेवार हिन्दू
राष्ट्र को स्वतंत्रा देखना चाहते थे ..।’’( पेज 88)
अन्त
में यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि ‘हिन्दु राष्ट्र’ के निर्माण के लिए
प्रतिबद्ध डा हेडगेवार की जीवनी को प्रकाशन विभाग द्वारा ‘आधुनिक भारत के
निर्माता’ शीर्षक श्रृंखला में क्यों छापा गया ? कहीं ऐसा तो नहीं कि
प्रकाशन विभाग के आकाओं के लिए भी आधुनिक भारत का अर्थ हिन्दु राष्ट्र में
तब्दील हो गया है जिसको वे साफ तौर पर उजागर करना चाहते हैं।