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June 01, 2019

Hindi Article- Can Modi Win Sabka Wishwas? (Trust of all)


क्या मोदी ‘सबका विश्वास’ जीत सकते हैं? क्या उन्होंने ‘सबको साथ’ लिया है, ‘सबका विकास’ किया है? -राम पुनियानी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सन 2014 के आम चुनाव में अपनी जीत के बाद, ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा दिया था. अब उन्होंने इस नारे में ‘सबका विश्वास’ भी जोड़ दिया है. मुस्लिम समुदाय के कई प्रमुख लेखक और कार्यकर्ता खुद को यह भरोसा दिलाने का जतन कर रहे हैं कि मोदी अपने वायदा निभायेगें, मुसलमान और ईसाई धार्मिक अल्पसंख्यकों का दमन नहीं होने देंगे और यह सुनिश्चित करेंगे कि इन समुदायों के सदस्य डर के साए में जीने को मजबूर न हों. मनुष्य को आशावादी होना चाहिए और किसी भी स्थिति में अपनी उम्मीदों को मरने नहीं देना चाहिए. परन्तु पिछले कुछ वर्षों में ‘सबका विकास’ के नारे की जो परिणिति हुई है, उससे कई प्रश्न उपजते हैं. हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा - मोदी जिसके पक्के पैरोकार हैं - भी इस वायदे के पूरा होने के सम्बन्ध में कई आशंकाओं को जन्म देती है. हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का लक्ष्य और हिन्दू दक्षिणपंथियों के एजेंडे - जिससे श्री मोदी सहमत हैं - से यह आशा धूमिल होती है कि भविष्य में हम एक शांतिपूर्ण और समावेशी भारत में जी सकेंगे. मोदी के पिछले पांच साल के कार्यकाल में अल्पसंख्यकों में असुरक्षा का भाव बढ़ा है. राममंदिर, घरवापसी और लव जिहाद जैसे विघटनकारी मुद्दों की सूची में पवित्र गाय और गौमांस का मुद्दा भी जुड़ गया. इसने पहचान से जुड़े मुद्दों पर जुनून को जबरदस्त हवा दी. मुसलमानों को पीट-पीट कर मार डालने की घटनाएं बढीं और दलितों पर हमले भी. इन दोनों समुदायों पर जिस तरह के अत्याचार हुए, वे दिल दहलाने वाले थे. इस अवधि में तथाकथित ‘अतिवादी तत्त्व’ - जो, दरअसल, हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति के श्रम विभाजन की उपज हैं - अत्यंत आक्रामक हो गए. सत्ताधारियों ने या तो इन तत्वों की कारगुजारियों को नज़रअंदाज़ किया या ‘जय श्री राम’ के नारे बुलंद करती खून की प्यासी भीड़ों की हरकतों की सराहना की. इन तत्वों को स्पष्ट सन्देश दिया गया कि इस सरकार के रहते, वे कुछ भी कर सकते हैं. केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा ने लिंचिंग के आरोपी के शव को राष्ट्रीय ध्वज में लपेटा तो उनके सहयोगी जयंत सिन्हा ने जमानत पर रिहा लिंचिंग के दोषसिद्ध अपराधियों को सम्मानित कर यह सन्देश दिया कि इन बर्बर दुष्टों ने कुछ भी गलत नहीं किया है. इस तरह की घटनाओं से मुसलमान में भय व्याप्त हो गया और वे समाज के हाशिये पर खिसक गए. ईसाईयों को भी प्रताड़ित किया गया, यद्यपि इस हद तक नहीं. उनकी प्रार्थना सभाओं और कैरोल गायकों के समूहों पर हमले हुए. यह आरोप लगाया गया कि वे धर्मान्तरण करवा रहे हैं. तो यह था सबका साथ, सबका विकास! अब श्री मोदी फिर सत्ता में आ गए हैं. उनकी पार्टी, भाजपा, को पहले से ज्यादा वोट मिले हैं और ज्यादा सीटें भीं. भाजपा को मिले इस जनादेश का विश्लेषण किया जा रहा है. जो कारण गिनाये जा रहे हैं, वे हैं: विपक्ष एक नहीं हो सका, पुलवामा घटना पर अति-राष्ट्रवाद को हवा दी गयी, ईवीएम के साथ छेड़छाड़ हुई और चुनाव आयोग ने निष्पक्ष भूमिका अदा नहीं की. यह सब तो चिंताजनक है ही परन्तु इससे भी अधिक चिंताजनक और डरावनी वे घटनाएं हैं जो मोदी और भाजपा की जीत के बाद देश में हुईं. यह सचमुच दुखद है कि इस छोटी सी अवधि में हमें यह सब कुछ देखना-सुनना पड़ा: · बिहार के बेगुसराय में मोहम्मद कासिम नामक एक मुस्लिम युवक की गोली मार कर हत्या कर दी गई (मई 26). पिछली सुबह उससे उसका नाम पूछा गया था. · इसी दिन, चार अज्ञात युवकों ने पारंपरिक टोपी पहने एक मुस्लिम युवक पर हमला किया. · झारखण्ड में एक आदिवासी प्रोफेसर को अपनी फेसबुक वाल पर बीफ खाने के अधिकार की बात करने पर गिरफ्तार कर लिया गया (मई 26). · छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में स्व-नियुक्त गौरक्षक एक डेरी में जबरदस्ती घुस गए (मई 26) और यह आरोप लगाया कि वहां गाय को काट कर उसका मांस बेचा जा रहा है. डेरी के कर्मचारियों की बेरहमी से पिटाई की गयी और वहां तोड़फोड़ की गयी. · वड़ोदरा (गुजरात) के महूवद गाँव में, ऊँची जातियों के लोगों की एक भीड़, जिसमें 200-300 व्यक्ति शामिल थे, ने एक दलित के घर पर हमला बोल दिया. कारण सिर्फ यह था कि उसने तथाकथित रूप से अपने एक फेसबुक पोस्ट में लिखा था कि गाँव के मंदिर में दलितों को विवाह समारोह आयोजित करने की इज़ाज़त सरकार नहीं देती. · ‘जनता का रिपोर्टर’ की एक खबर के अनुसार, असम में अशरफ अली नामक व्यक्ति, जिसकी आयु 90 वर्ष से अधिक थी, ने आत्महत्या कर ली. उसे डर था कि उसे विदेशी घोषित कर डिटेंशन सेंटर में भेज दिया जायेगा. उसका शव गुवाहाटी से 70 किलोमीटर दूर पश्चिम में स्थित सोंतोली, बोको में उसकी झोपड़ी के नज़दीक एक स्कूल में मिला. इतने कम समय में इतनी सारी घटनाएं बतातीं हैं कि मोदी के फिर से सत्ता में आने से वातावरण में किस तरह का ज़हर घुल गया है. तथाकथित अतिवादियों का दुस्साहस आसमान पर है. उन्हें विश्वास हो गया है कि वे कुछ भी करें, उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा. वे जानते हैं कि पिछले पांच वर्षों में मोदी की नीतियाँ क्या रहीं हैं और उन्हें मालूम है कि वही नीतियाँ अब और जोरशोर से लागू होंगी. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने मुसलमान शरणार्थियों को दीमक बताया है. इससे साफ़ है कि सत्ताधारी दल का मुसलमानों के प्रति क्या दृष्टिकोण है. भाजपा के 303 सांसदों में से एक भी मुसलमान नहीं है. लोकसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व घटता जा रहा है. मुसलमान पहले से बदहाल हैं. रंगनाथ मिश्र आयोग और सच्चर समिति की रपटें उनकी बदहाली की कहानी कहतीं हैं. कांग्रेस और अन्य अर्द्ध-धर्मनिरपेक्ष पार्टियों पर मुसलमानों का तुष्टीकरण करने का आरोप लगाया जाता रहा है परन्तु तथ्य यह है कि मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति गिरती जा रही है. मुस्लिम समुदाय के कई प्रतिबद्ध नेता, प्रजातान्त्रिक प्रक्रिया से बाहर हो गए हैं. वैसे भी, हमारे देश में प्रजातंत्र पिछले लगभग एक दशक में कमज़ोर ही हुआ है. देश में बढ़ती हिंसा का सीधा सम्बन्ध हिंदुत्व के मज़बूत होने से है. आरएसएस की कई संतानें हैं, जिन्हें संयुक्त रूप से संघ परिवार कहा जाता है. भाजपा के दिल्ली में भारी बहुमत से सरकार बनाने से संघ और मज़बूत होगा और उसकी शाखाओं की संख्या में वृद्धि होगी. संघ से जुड़े अन्य संगठनों की ताकत भी बढ़ेगी. कहने की ज़रुरत नहीं कि किसी भी देश में प्रजातंत्र की मजबूती का आंकलन इससे किया जाता है कि वहां अल्पसंख्यक कितने सुरक्षित हैं. जाहिर है कि जो कुछ हो रहा है, वह हमारे देश के प्रजातान्त्रिक मूल्यों के लिए ठीक नहीं है. हमें चिंता और चिंतन करने की ज़रुरत है. (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)