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May 13, 2019

India - Himachal Pradesh: People made to pledge their votes in temples...(BBC Hindi Report)

 https://www.bbc.com/hindi/india-48245442

हिमाचल: क्या है 'लूण लोटा’ जिससे डराकर होती है वोट लेने की कोशिश


Image caption प्रतीकात्मक तस्वीर
हिमाचल प्रदेश की गिनती भारत के सबसे शिक्षित राज्यों में होती है. 2011 की जनगणना के अनुसार 68.6 लाख की आबादी वाले इस छोटे से पहाड़ी प्रदेश की साक्षरता दर 81.85 प्रतिशत थी.
मगर हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में अब भी ऐसी प्रथाएं और परंपराएं हैं जो काफ़ी चौंकाने वाली हैं.
इन्हीं में से एक है- देवताओं का डर दिखाकर या देवताओं के प्रति आस्था का दोहन करने के लिए क़सम खिलाकर लोगों को किसी काम के लिए मजबूर करना. इनमें चुनाव के दौरान अपने पक्ष में वोट करवाने के लिए ब्लैकमेल करना भी शामिल है.
सुनने में यह बात भले ही अजीब लगे मगर हिमाचल प्रदेश के दूर-दराज के पिछड़े हुए पहाड़ी इलाक़ों में इस तरह की परंपरा अब भी मौजूद होने के संकेत जब-तब सामने आते रहते हैं.
इस प्रथा की बात अभी चल रहे लोकसभा चुनाव के दौरान भी उभर कर आई. अप्रैल महीने में कुल्लू से कांग्रेस के विधायक पर घाटी के अराध्य देव रघुनाथ की क़सम देकर कांग्रेस प्रत्याशी के पक्ष में वोट मांगने के आरोप लगे. हालांकि उन्होंने इस आरोप को ग़लत बताते हुए कहा था कि उनके बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया.
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Image caption प्रतीकात्मक तस्वीर
इसके राज्य सरकार में कृषि मंत्री रामलाल मारकंडा पर लाहौल-स्पीति के पूर्व विधायक ने आरोप लगाया कि उन्होंने माला फेरकर लोगों को वोट देने की क़सम दिलाई. मारकंडा भी इस आरोप को निराधार बता रहे हैं.
यह मामला चुनाव आयोग तक भी पहुंचा है. हिमाचल प्रदेश के मुख्य निर्वाचन अधिकारी देवेश कुमार बताते हैं कि अभी इस मामले की जांच चल रही है.
मगर उन्होंने स्पष्ट किया कि धर्म के आधार पर कोई भी चुनाव प्रचार नहीं कर सकता. उन्होंने कहा, "धार्मिक आधार पर अगर कोई परंपराओं को इस तरह से इस्तेमाल करता है तो इसे आचार संहिता का उल्लंघन माना जाता है."
क्या है यह प्रथा
हिमाचल प्रदेश के अलग-अलग इलाक़ों में यह प्रथा अलग-अलग रूप में मौजूद होने की घटनाएं सामने आती रही हैं. उदाहरण के लिए शिमला और सिरमौर के आंतरिक इलाक़ों में इसे 'लूण लोटा' कहा जाता है.
जिन देवताओं के नाम पर क़सम या शपथ दिलाए जाने की बात आती है, वे मुख्यत: गांवों के देवता हैं. इन देवताओं के अपने मंदिर हैं और श्रद्धालु उन्हें पालकी से त्योहारों, मेलों और उत्सवों में ले जाते हैं.
Image caption प्रतीकात्मक तस्वीर
ये देवता अधिकतर हिंदू धर्म के मुख्य देवताओं में से एक हैं या फिर ऋषि हैं, जिन्हें देव रूप में पूजा जाता है.
हिमाचल में बहुत से गांवों में इन देवताओं के अपने प्राचीन मंदिर हैं, जिनके अपने प्रभाव क्षेत्र माने जाते हैं. उन इलाक़ों के लोगों की अपने इन देवताओ को पर गहरी आस्था होती है.
सिरमौर के ज़िला मुख्यालय नाहन में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार शैलेंद्र कालरा बताते हैं कि देवताओं की क़सम दिलाकर वोट मांगने का चलन पंचायत स्तर के चुनावों में अधिक देखने को मिलता रहा है.
Image caption वरिष्ठ पत्रकार शैलेंद्र कालरा
वह कहते हैं, "पंचायत और वॉर्ड मेंबर वगैरह के चुनावों में इसका चलन माना जाता है और विधानसभा में भी. इसे लूण लोटा कहा जाता है. कसम दिलाते हुए पानी के लोटे में लूण (नमक) डाल दिया जाता और कहा जाता है कि आपने कसम तोड़ी तो जैसे नमक पानी में घुल गया, वैसे आप भी ख़त्म हो जाएंगे."
शैलेंद्र कहते हैं कि यह प्रथा शहरी इलाक़ों में नहीं है मगर सुदूर इलाक़ों में है. वह बताते हैं, "हिमाचल में अभी भी सिरमौर, चंबा, मंडी, कुल्लू और लाहौल-स्पीति में ऐसे लोग मिल जाएंगे जिन्होंने आज तक शहर नहीं देखा. वहां यह सब होता होगा. सिरमौर में तो कुछ गांव ऐसे हैं जहां के कुछ लोग अपने गांव से बाहर नहीं निकले होंगे. कुछ साल पहले मैंने एक स्टोरी की थी जिसमें संगड़ाह डिवीज़न से बच्चे आए थे जो पहली बार बस में बैठे थे.
हालांकि शैलेंद्र कहते हैं, "यह पक्के तौर पर कहना और साबित करना मुश्किल है कि कहां पर लूण लोटा हो रहा है. अगर हो रहा है तो लोग तो बताएंगे नहीं, ऐसे में कौन साबित करेगा?"
वहां अगर लूण लोटा हो राह है तो कौन प्रूव करेगा, लोग तो बताएंगे नहीं.
कहां से आया यह चलन
जिस तरह की परंपराएं शिमला और सिरमौर में हैं, वैसी ही मंडी और कुल्लू के अंदरूनी इलाक़ों में बताई जाती हैं. वे कमोबेश वैसी ही हैं, मगर उनका स्वरूप थोड़ा अलग है.
ये वे पहाड़ी इलाक़े हैं, जो सदियों से कटे रहे और इनका बाहरी दुनिया से संपर्क बहुत कम रहा. उस दौर में समाज गांव तक ही सीमित थे और गांव के लोगों में अपने ग्राम के देवता और उनके पुजारियों का बड़ा महत्व था.
Image caption प्रतीकात्मक तस्वीर
इनमें से बहुत से इलाक़े सड़कों से जु़ड़ गए हैं, सुविधाएं भी आई हैं मगर परंपराएं अधिक नहीं बदलीं. आज भी लोग कोई भी काम करने से पहले, यात्रा आदि पर जाने से पहले वे गूर (पुजारी) के माध्यम से अपने ग्राम देवता की इजाज़त लेना ज़रूरी समझते हैं.
कुल्लू में रहने वाले यतिन पंडित हिमाचल प्रदेश की कला और संस्कृति पर शोध करते हैं और इन विषयों पर लंबे समय से लिख रहे हैं.
वह कहते हैं, "जैसे-जैसे पुराने दौर में अलग-अलग क़बीलाई क्षेत्रों के लोग इधर से उधर गए, वे अपने साथ अपनी मान्यताएं और परंपराएं भी ले गए. कुल्लू और मंडी के इलाक़े में सिरमौर और निरमंड के इलाक़े से बहुत सी परंपराएं आई हैं."
Image caption यतिन पंडित हिमाचल प्रदेश की कला और संस्कृति के जानकार हैं.
यतिन बताते हैं कि पहले के दौर में क़सम खिलाने का यह सिलसिला पहले विवाद निपटाने का ज़रिया था और बाद में इसे तरह-तरह से इस्तेमाल किया जाने लगा. वह कहते हैं, "जैसे गीता आदि की शपथ दिलाई जाती है, यह वैसा ही मामला है."
सिरमौर और शिमला में लूण लोटा परंपरा है, वैसे मंडी और कुल्लू में देवता के मंदिर के सामने पानी पिलाने या चावल देने की प्रथा है. वहीं लाहौल स्पीती में बौद्ध और हिंदू परंपराओं का समायोजन है, ऐसे में वहां जाप के लिए इस्तेमाल की जाने वाली माला के माध्यम से क़सम दिलाई जाती है.
लेकिन आख़िर इस तरह क़समें खिलाने की ज़रूरत क्यों पड़ी होगी, इस पर यतिन बताते हैं, "लोगों की पुराने समय से देवताओं पर गहरी आस्था रही है. शुरू में दूर के इलाकों में व्यवस्थाएं नहीं थीं. आपसी विवाद और झगड़े मिटाने के लिए पहले लोग थान देवता (स्थान देवता का अपभ्रंश) के पास जाकर क़सम खाते थे कि यह काम मैंने नहीं किया."
यतिन बताते हैं कि कुल्लू में इस मामले में एक ख़ास देवता हैं जिन्हें कश्यप नारायण और स्थानीय बोली में 'कसमी नारायण' यानी क़सम वाला देवता कहा जाता है. वह कहते हैं, "आज भी कश्यप नारायण देवता की झूठी क़सम खाने से यहां पर लोग डरते हैं, उन्हें लगता है कि झूठी क़सम खाई तो देवता का प्रकोप उनपर होगा. कुल्लू घाटी के बड़े देवताओं में गिने जाने वाले जमलू देवता की क़समें भी खिलाई जाती हैं."
कसम दिलाकर वोट मांगने की बात पर यतिन का कहना है कि बचपन से वह क़सम खिलाने की परंपरा सुनते और देखते आए हैं और आज भी सुनने में आता है कि कुछ लोग चुपके से ऐसा करवाते हैं.
शिक्षित राज्य में ऐसे हालात क्यों?
भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री से सम्मानित चंबा ज़िले के पहाड़ी चित्रकार और कला इतिहासकार विजय शर्मा हिमाचल प्रदेश की कला और संस्कृति की गहरी समझ रखते हैं.
वह अपने बचपन का एक क़िस्सा साझा करते हुए कहते हैं, "मुझे बचपन की एक बात याद है. यहां कोई नेता थे जो हाथ में चांदी का त्रिशूल रखते थे और लोगों से कहते थे कि यह देवी मां का त्रिशूल है, इस पर हाथ रखकर बोलिए कि आप मुझे ही वोट देंगे.यह पुरानी बात है मगर आज भी पढ़ने को मिल जाता है कि फलां गांव में किसी ने देवता के नाम पर या क़सम किलाकर वोट मांगे हैं. लोग झांसे में आ भी जाते हैं, यह लोकतांत्रिक देश के लिए ठीक नहीं है."
Image caption पहाड़ी चित्रकार और कला इतिहासकार विजय शर्मा
विजय शर्मा बताते हैं कि हिमाचल में लोग धर्मभीरू हैं, ईश्वर से डरते हैं. उनका कहना है कि बहुत से भोले-भाले लोग ऐसे हैं जो चालाक नेताओं के झांसे में आ जाते हैं और मजबूरी में वोट दे देते हैं. उनके अनुसार हिमाचल में ऐसी घटनाएं पहले भी होती आई थीं और कुछ इलाक़ों में अब भी होती हैं.
हिमाचल प्रदेश पिछले कुछ सालों में शिक्षा के क्षेत्र में अच्छा काम करने वाले राज्यों में उभरा है. साक्षरता दर तो अच्छी है ही, जगह-जगह और दूर-दूर के गांवों में भी स्कूल अच्छी ख़ासी संख्या में मौजूद हैं.
कनेक्टिविटी भी बढ़ी है और बहुत से दूर-दराज के गांव पिछले कुछ दशकों में सड़कों से जुड़े हैं. फिर भी क्या वजह है कि लोग इस तरह की परंपराओं के आगे विवश नज़र आते हैं?
इस पर विजय शर्मा कहते हैं, "देखिए शिक्षा के क्षेत्र की बात करें तो बहुत से स्कूल-कॉलेज खुल गए मगर हकीकत पर क्या बोलें?
स्कूलों को अपग्रेड करके कॉलेज के फट्टे टांग दिए गए मगर इन्फ्रास्ट्रक्चर का कुछ किया नहीं गया. किसने किया, क्यों किया मैं इस पर नहीं जाता. देखने को यह भी आता है कि कुछ पढ़े-लिखे लोग, गांव के लोग जो ईश्वर पर गहरी आस्था रखते हैं, वे शपथ दिलाए जाने पर मजबूर हो जाते हैं. फिर उन्हें इसके हिसाब से चलना पड़ता है."
क्या कहना है देवता समाज का
हिमाचल के बहुत से गांवों के लोग अपने ग्राम या कुल देवताओं में गहरी आस्था रखते हैं. उनका मानना है कि ये देवता आज भी अपने गूर (पुजारी) के माध्यम से उनकी बातें सुनते हैं और कहते हैं.
बहुत से लोगों के लिए इन देवताओं की अहमियत परिवार के मुखिया की तरह है, जिसकी इजाज़त के बग़ैर वे कोई काम नहीं करते.
Image caption प्रतीकात्मक तस्वीर
मंडी ज़िले में भी बहुत से देवी-देवता हैं, जिनकी लोगों के बीच गहरी मान्यता है. शिवपाल शर्मा सर्व देवता समिति ज़िला मंडी के अध्यक्ष हैं. देवताओं का सहारा लेकर चुनाव के दौरान जनता को प्रभावित करने की कोशिशों को वह देवताओं का अपमान बताते हैं.
उन्होंने कहा, "देवी-देवता राजनीतिक नहीं होते और न राजनीति में जाते हैं. देवताओं का काम समस्याओं को दूर करना, समाज की कुरीतियों को दूर करना है. हर देवता अपने क्षेत्र तक सीमित रहते हैं और वहां सारे काम जनता और देवता के योगदान से होते हैं.
वह कहते हैं कि पहले के समय लोग बहुत से कामों के लिए इन देवताओं पर निर्भर थे और आज भी हैं. वे समाज को जोड़कर रखते हैं. मगर कुछ लोग इसका नाजायज़ फ़ायदा उठाना चाहते हैं.
वह कहते हैं, "राजनेताओं को देवताओं के नाम पर इस तरह के काम नहीं करने चाहिए. राजनीतिज्ञ देवता के पास जाएं, वहां प्रार्थना करें, लोगों से जो बात कहनी है कहें मगर देवता की क़सम दिलाना तो बहुत ही ग़लत है."
बहरहाल, कुल्लू घाटी की देव परंपराओं और इसके इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले यतिन पंडित कहते हैं चीज़ें बदल रही हैं. वह उम्मीद जताते हैं कि जल्द ही इस तरह की चीज़ें पहाड़ के समाज से हट जाएंगी.
यतिन कहते हैं, "मेरा मानना है कि अभी भी कुछ लोग हैं, जैसे कि बुज़ुर्ग, वे इस तरह की मान्यताओं का पालन करते हैं. जो युवा हैं, पढ़-लिख गए हैं, जिन्होंने समझना शुरू कर दिया है, वे इन मान्यताओं को महत्व नहीं दे रहे. मान्यताओं में भी जेनरेशन गैप आ गया है. अब ये चीज़ें कम हो रही हैं, 20 साल पहले जैसे हालात थे वैसे अब नहीं."
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