धर्मनिरपेक्षता,
प्रजातान्त्रिक समाज और अल्पसंख्यक अधिकार
-राम पुनियानी
हम
एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जब सामाजिक मानकों और संवैधानिक मूल्यों का बार-बार और
लगातार उल्लंघन हो रहा है. पिछले कुछ वर्षों में दलितों पर बढ़ते अत्याचार और
गौरक्षा के नाम पर अल्पसंख्यकों की लिंचिंग ने समाज को झिंझोड़ कर रख दिया है. इस
सबके पीछे है सांप्रदायिक राजनीति का परवान चढ़ना. यह वो राजनीति है जो संकीर्ण,
सांप्रदायिक और धार्मिक पहचान पर आधारित है. सन 2019 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी
को जबरदस्त जनादेश मिलने के कारण, हालात के और ख़राब होने की आशंका से इंकार नहीं
किया जा सकता. सत्ता में वापसी के बाद, मोदी ने अपने भाषण में जो कुछ कहा, वह
अत्यंत चिंताजनक है और उससे आने वाले दिनों वे क्या होने वाला है, उसका संकेत भी
मिलता है.
श्री
मोदी ने कहा कि इस चुनाव ने धर्मनिरपेक्षतावादियों के झूठे दावों को बेनकाब कर
दिया है और अब वे इस देश को गुमराह नहीं कर सकेंगे. उन्होंने कहा कि इस चुनाव ने
धर्मनिरपेक्षता के मुखौटे को तार-तार कर दिया है और यह दिखा दिया है कि धर्मनिरपेक्षता,
अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण का दूसरा नाम है. उन्होंने कहा कि धर्मनिरपेक्ष होने का
दावा करने वाली पार्टियों ने अल्पसंख्यकों को धोखा दिया है और उनके साथ कपट किया
है.
इन
बातों को विजय के नशे में झूमते एक व्यक्ति की अति-उत्साह में की गयी टिप्पणियां
मान कर नज़रअंदाज़ करना एक बड़ी भूल होगी. धर्मनिरपेक्षता का अंत, हमेशा से
साम्प्रदायिकता का लक्ष्य रहा है. यह सही है कि धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा के कार्यान्वयन
में कई कमियां रहीं हैं. धर्मनिरपेक्षता के नाम पर शाहबानो मामले में अदालत के
निर्णय को पलटने और बाबरी मस्जिद के दरवाजे खोलने जैसी गंभीर भूलें की गईं है.
परन्तु यह कहना कि अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण हुआ है, एक सफ़ेद झूठ है. गोपाल सिंह और
रंगनाथ मिश्र आयोगों और सच्चर समिति की रपटों से पता चलता है कि मुसलमानों की
सामाजिक-आर्थिक स्थिति न केवल ख़राब है बल्कि गिरती ही जा रही है.
मुस्लिम
समुदाय के कुछ कट्टरपंथी तत्वों का कितना ही भला हुआ हो परन्तु आम मुसलमान, आर्थिक
दृष्टि से बदहाल हुआ है और समाज में अपने आप को असुरक्षित महसूस करता है. हमें इस
बात पर चिंतन करना ही होगा कि हम हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता के दर्शन को ज़मीन
पर क्यों नहीं उतार सके.
धर्मनिरपेक्षता
की कई परिभाषाएं और व्याख्याएं हैं. भारतीय सन्दर्भ में ‘सर्वधर्म समभाव’
धर्मनिरपेक्षता की सबसे स्वीकार्य व्याख्या है. इसके साथ ही, राज्य का धार्मिक
मामलों में हस्तक्षेप न करना और धर्म (पुरोहित वर्ग) का राज्य की नीति में कोई दखल
न होना भी धर्मनिरपेक्षता का हिस्सा है.
धर्मनिरपेक्षता,
प्रजातंत्र का मूल अवयव है और दोनों को अलग नहीं किया जा सकता. इस सिलसिले में कुछ
उदाहरण दिए जा सकते हैं. जब यह मांग उठी कि सरकार को सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण
करना चाहिए तब गाँधीजी ने कहा कि हिन्दू समुदाय यह काम करने में सक्षम है. गांधीजी
के शिष्य नेहरु, उनकी बताई राह पर चलते रहे. नेहरु ने बांधों, कारखानों और
विश्वविद्यालयों को आधुनिक भारत के मंदिर बताया.
गांधीजी
ने धर्मनिरपेक्षता की अत्यंत सारगर्भित परिभाषा देते हुआ लिखा, “धर्म और राज्य
अलग-अलग होंगे. मैं अपने धर्म में विश्वास रखता हूँ. मैं उसके लिए जान भी दे
दूंगा. परन्तु यह मेरा व्यक्तिगत मामला है. राज्य का इससे कोई लेना-देना नहीं है.
राज्य आपकी दुनियावी बेहतरी का ख्याल रखेगा....”
समाज
विज्ञानी राजीव भार्गव लिखते हैं कि धर्मनिरपेक्षता... “न केवल भेदभाव, बल्कि
धार्मिक वर्चस्व के और भी विकृत स्वरूपों जैसे बहिष्करण, दमन और तिरस्कार की
खिलाफत करती है, बल्कि वह प्रत्येक धार्मिक समुदाय के भीतर वर्चस्व (यथा महिलाओं,
दलितों या असहमत व्यक्तियों का दमन) का भी विरोध करती है.”
भारत
में धर्मनिरपेक्षता की राह आसान नहीं रही है. यह अवधारणा, औपनिवेशिक काल में उभरते
हुए वर्गों के ज़रिये आई. ये वे वर्ग थे जो औद्योगिकीकरण, संचार के साधनों के विकास
और आधुनिक शिक्षा के प्रसार के साथ अस्तित्व में आये. इन वर्गों ने देश में हो रहे
समग्र परिवर्तनों को ‘भारत के राष्ट्र बनने के प्रक्रिया’ के रूप में देखा. भगत
सिंह, आंबेडकर और गाँधी जैसे महान व्यक्तित्वों ने धर्मनिरपेक्षता को अपनी राजनैतिक
विचारधारा और एक बेहतर समाज के निर्माण के अपने संघर्ष का आधार बनाया. ये लोग
भारतीय राष्ट्रवाद के हामी थे.
इसके
विपरीत, अस्त होते वर्गों जैसे राजाओं और जमींदारों ने सामाजिक बदलावों और अपने
वर्चस्व की समाप्ति की सम्भावना से घबरा कर, सांप्रदायिक राजनीति का सहारा लिया.
सांप्रदायिक राजनीति आगे चलकर दो धाराओं में बंट गयी - हिन्दू साम्प्रदायिकता और
मुस्लिम साम्प्रदायिकता. वे क्रमशः हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र के निर्माण
का स्वप्न देखने लगीं. जैसा कि प्रोफेसर बिपिन चन्द्र लिखते हैं, “साम्प्रदायिकता,
धार्मिक समुदाय को राष्ट्र का पर्यायवाची मानती है”. भारत में साम्प्रदायिकता का
दानव विकराल रूप धारण कर चुका है. साम्प्रदायिकता की विचारधारा मानती है कि एक
धार्मिक समुदाय के सभी सदस्यों के हित समान होते हैं और वे दूसरे समुदाय के हितों
से अलग होते हैं. और इसलिए, एक धार्मिक समुदाय, दूसरे धार्मिक समुदाय का स्वाभाविक
तिद्वंदी होता है. सांप्रदायिक राजनीति के पैरोकार मानते हैं कि ‘दूसरा समुदाय’,
‘हमारे समुदाय’ के लिए खतरा है. यह राजनीति, धार्मिक समुदायों के भीतर के ऊंच-नीच
पर पर्दा डालती है और जातिगत व लैंगिक पदक्रम बनाये रखना चाहती है.
भारत
में बढ़ती साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता के लिए एक बड़ी चुनौती है. पाकिस्तान में
तो मुस्लिम सांप्रदायिक ताकतें शुरू से ही बहुत मज़बूत थीं. भारत में
साम्प्रदायिकता, पिछले चार दशकों में मज़बूत हुई है. और इसका कारण है, सांप्रदायिक
हिंसा से जनित धार्मिक ध्रुवीकरण. राममंदिर, लव जिहाद, घरवापसी और पवित्र गाय जैसे
पहचान से जुड़े मुद्दे, भारत में साम्प्रदायिकता को हवा देते रहे हैं.
साम्प्रदायिकता, देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के लिए एक बड़ा खतरा है. वह इस देश को
सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष बनाने की राह में एक बड़ा रोड़ा है. साम्प्रदायिकता
की विघटनकारी राजनीति को बढ़ावा देने वाला एक बड़ा कारक है देश के धर्मनिरपेक्षीकरण
की प्रक्रिया का समाप्त न होना. धर्मनिरपेक्षीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके चलते प्रजातंत्र
की ओर बढ़ते किसी भी समाज में पुरोहित-जमींदार वर्ग की सत्ता और वर्चस्व समाप्त होता
है.
भारत
में औपनिवेशिक शासन के कारण, राष्ट्रीय आन्दोलन की ऊर्जा मुख्य रूप से औपनिवेशिक
शासकों का विरोध करने में व्यय हुई और राजा और जमींदार - जिनके साथ बाद में उच्च
मध्यम वर्ग का एक हिस्सा भी जुड़ गया - हाशिये पर तो खिसक गए परन्तु उनका प्रभाव
समाप्त नहीं हुआ. वे ही आगे चल कर सांप्रदायिक राजनीति के झंडाबरदार बने. इस
राजनीति ने अंततः देश का विभाजन किया और समाज में कई नकारात्मक प्रवृत्तियों को
जन्म दिया. परन्तु यह निश्चित है कि सांप्रदायिक ताकतें, भारत के बहुवाद और उसके
विविधवर्णी चरित्र को कभी समाप्त नहीं कर सकेंगीं. उनकी हार हो कर रहेगी. (अंग्रेजी
से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)