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March 24, 2017

Hindi Article: UP Elections: Deepening Communal Polarization / उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावः सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और गहरा हुआ

उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावः सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और गहरा हुआ

-राम पुनियानी

हाल में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे कई लोगों के लिए बहुत विस्मयकारी और धक्का पहुंचाने वाले हैं। इन नतीजों ने सांप्रदायिक ताकतों को जश्न मनाने का मौका दे दिया है। सन 2014 के आम चुनाव के मुकाबले, भाजपा का मतों का प्रतिशत कुछ कम हुआ है परंतु उसने जितनी सीटें जीती हैं, वह आश्चर्यजनक है। लगभग 39 प्रतिशत मत प्राप्त कर उसने 80 प्रतिशत से अधिक विधानसभा सीटें जीत ली हैं।

सन 2014 के चुनाव की लहर, जिसने मोदी को सत्तासीन किया था, में भाजपा को 31 प्रतिशत मत और करीब 60 प्रतिशत लोकसभा सीटें मिली थीं। उस समय मुद्दा था अच्छे दिन लाने का वायदा और गुजरात के विकास के मॉडल को पूरे देश में लागू करने का आश्वासन। सन 2014 की विजय के दो मुख्य आधार थे-पहला, कार्पोरेट घरानों का समर्थन और दूसरा, आरएसएस के कार्यकर्ता। इन दोनों का समर्थन मोदी को इस बार भी हासिल था और अपने प्रचार के ज़रिए उन्होंने और संघ परिवार ने कई अन्य मुद्दों का इस्तेमाल भी वोट कबाड़ने के लिए किया।

नोटबंदी के मुद्दे को भी सांप्रदायिक रंग दे दिया गया। यह कहा गया कि नोटबंदी से आतंकियों को उनके पास जमा करोड़ों रूपयों के नोट जलाने पड़े। यह भी कहा गया कि चूंकि अधिकांश मुसलमान अपना धन बैंकों में नहीं रखते इसलिए उन्हें भी अपने नोट जलाने पड़े। यह प्रचार मुंहज़बानी किया गया। मोदी ने शुरूआत में सांप्रदायिक भाषा का इस्तेमाल नहीं किया परंतु बाद में उन्होंने भी घोर सांप्रदायिक जुमले उछालने शुरू कर दिए, जिनमें कब्रिस्तान-श्मशान और दिवाली और ईद पर बिजली की आपूर्ति जैसे मुद्दे शामिल थे। मोदी का विशाल प्रचारतंत्र लगातार सांप्रदायिक मुद्दे उछालता रहा। लव जिहाद की जमकर चर्चा की गई और यह वायदा किया गया कि हिन्दू लड़कियों को गुंडों (मुस्लिम युवकों) से बचाने के लिए मजनू-विरोधी दल गठित किए जाएंगे। भाजपा के पास उसका पुराना राममंदिर का मुद्दा तो था ही।

आरएसएस के कार्यकर्ता और उसकी विचारधारा में रंगे लोग गांव-गांव में फैल गए। उन्होंने यह प्रचार करना शुरू कर दिया कि समाजवादी पार्टी, मुसलमानों की समर्थक है और मायावती भी मुसलमानों को रिझाने में लगी हुई हैं। केवल भाजपा ही ऐसी पार्टी है जो हिन्दुओं को बचा सकती है। जहां शीर्ष नेता विकास की बातें करते रहे, वहीं संघ के कार्यकर्ताओं ने समाज का सांप्रदायिकीकरण करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। यही कारण है कि भारी संख्या में गैर-यादव ओबीसी व गैर-जाटव दलितों ने भाजपा का साथ दिया।

भाजपा की चुनाव मशीनरी गजब की कार्यकुशल है। उसने मुज़फ्फरनगर की सांप्रदायिक हिंसा से हुए ध्रुवीकरण की नींव पर घरवापसी, गोरक्षा इत्यादि मुद्दों की सहायता से सांप्रदायिकता की मज़बूत इमारत खड़ी कर दी। मतदान केन्द्र प्रबंधन से लेकर स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रही जातियों को अपने से जोड़ने तक-विजय सुनिश्चित करने के लिए हर संभव प्रयास किए गए। भाजपा ने कुर्मियों और राजभर जैसे छोटे जाति समूहों से गठबंधन किया। ‘दैनिक जागरण’ द्वारा तोड़ेमरोडे़ गए एक्जिट पोल के नतीजों के प्रकाशन ने भी भाजपा की मदद की।

जहां तक विपक्ष का सवाल है, उसकी सबसे बड़ी असफलता थी उसका एक न हो पाना। बिहार में हमने देखा था कि किस तरह लालू और नीतीश कुमार ने एक होकर भाजपा के रथ को रोक दिया था। असम में इसका उल्टा हुआ। कांग्रेस वहां गठबंधन नहीं बना सकी परंतु भाजपा ने बना लिया। असम के चुनाव में कांग्रेस का मतों का प्रतिशत पिछले चुनाव की तुलना में अधिक था, जबकि भाजपा को पिछली बार से कम मत मिले। परंतु इसके बाद भी, कांग्रेस सरकार बनाने में असफल रही। चुनाव की पूर्व बेला पर विभिन्न पार्टियों के कई नेताओं के भाजपा में शामिल होने से भी भगवा पार्टी को विजय प्राप्त करने में मदद मिली।

भाजपा ने हर संभव मुद्दे का इस्तेमाल किया और वह अपनी संभावित हार को जीत में बदलने में सफल रही। सर्जिकल स्ट्राईक का सच चाहे कुछ भी रहा हो, प्रचार तो यही किया गया कि वह एक बहुत बडी विजय थी जिसके ज़रिए पाकिस्तान को सबक सिखाया गया और आतंकी घटनाओं में कमी आई।

उत्तरप्रदेश की राजनीति मुख्यतः जातिगत समीकरणों पर आधारित थी। भाजपा उसे सांप्रदायिक समीकरणों का आधार देने में सफल रही। उसने सांप्रदायिकता का ऐसा जुनून पैदा कर दिया कि जातिगत वफादारियां पीछे छूट गईं। गैर-भाजपा पार्टियों ने एक होना ज़रूरी नहीं समझा। यह तर्क दिया गया कि सपा और बसपा में इतने मतभेद हैं कि उनका एक होना संभव ही नहीं हैं। यह तर्क बेमानी है। इन दोनों पार्टियों को बिहार के अनुभव और सन 2014 के आम चुनावों में अपने बुरे प्रदर्शन से सबक लेना चाहिए था।

उत्तरप्रदेश की पिछली विधानसभा में मुसलमान विधायकों की संख्या 86 थी। अब यह घटकर 24 रह गई है। यह तर्क दिया गया कि जहां मुसलमान पुरूषों ने भाजपा को वोट नहीं दिया वहीं मुस्लिम महिलाओं ने जमकर कमल का बटन दबाया। इसका कारण यह बताया गया कि भाजपा ने मुंहज़बानी तलाक का मुद्दा उठाया था। यह सही है कि मुंहज़बानी तलाक की दकियानूसी प्रथा, मुस्लिम महिलाओं के दुःखों का बहुत बड़ा कारण है परंतु क्या यह भी सही नहीं है कि मुज़फ्फरनगर जैसी सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं का सबसे बड़ा खामियाज़ा मुस्लिम महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है।

यह दिलचस्प है कि भाजपा ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया। ऐसा कर शायद पार्टी यह बताना चाहती थी कि वह मुसलमानों के मतों के बिना भी चुनाव जीत सकती है। भाजपा ने मुसलमानों के वोट हासिल करने की कोशिश करने की बजाए उनके मतों को विभाजित करने का रास्ता अपनाया। मुसलमान यह नहीं समझ सके कि उन्हें सपा का समर्थन करना चाहिए या बसपा का। और नतीजे में उन्होंने सांप्रदायिक ताकतों को भारी विजय दिलवा दी। वे अब बहुत निराश और हताश हैं।

यह प्रचार जमकर किया गया कि हिन्दुओं के साथ अन्याय हो रहा है और केवल भाजपा ही उन्हें न्याय दिलवा सकती है। नतीजा यह हुआ कि यादव मत सपा को गए, जाटव मत बसपा को मिले और इन दोनों जातियों को छोड़कर, अन्य सभी हिन्दुओं ने भाजपा का साथ दिया। इस चुनाव ने चुनावी राजनीति में मुसलमानों का पूरी तरह से हाशियाकरण कर दिया है।
भाजपा नेता चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि उत्तरप्रदेश की जीत, पार्टी के विकास की एजेण्डे की जीत है, जनधन और उज्जवला जैसी योजनाओं की जीत है। इस दावे में कोई दम नहीं है। भाजपा की विजय के पीछे मुख्यतः धार्मिक धुव्रीकरण है। समाज का सांप्रदायिकीकरण अपने चरम पर पहुंच गया है और भाजपा इस सांप्रदायिकीकरण को वोटों में बदलने में सफल हुई है। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)