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November 08, 2014

श्रमेव और संस्कृत - On the use of Sankrit terms in official programmes (Jansatta, 22 oct 2014)

source: http://www.jansatta.com/duniya-mere-aage/editorial-sanskrit/

श्रमेव और संस्कृत
जनसत्ता | October 22, 2014

शास्त्री कोसलेंद्रदास

जनसत्ता 22 अक्तूबर, 2014: नरेंद्र मोदी की सरकार बनने पर जिस बात की सबसे अधिक उम्मीद की गई, वह संस्कृत के विकास को लेकर थी। लोकसभाध्यक्ष सुमित्रा महाजन के अलावा सुषमा स्वराज, उमा भारती और डॉ हर्षवर्धन सरीखे मंत्रियों और अनेक सांसदों ने संस्कृत में शपथ ली तो लगा कि कम से कम संस्कृत के ‘अच्छे दिन’ जल्द आने वाले हैं। प्रधानमंत्री ने भी स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से दिए भाषण में संस्कृत मंत्रों का समावेश कर इस धारणा को और प्रबल किया। हाल ही में उन्होंने श्रम क्षेत्र में सुशासन, कल्याण और कौशल उन्नयन की नई पहल करते हुए जो कार्यक्रम देश के सामने रखा, उसका नाम संस्कृत में रख कर विश्व की सबसे पुरानी भाषा को आम बोलचाल से जोड़ने की कोशिश की है।

प्रधानमंत्री ने अपने नए कार्यक्रम ‘श्रमेव जयते’ का नाम संस्कृत में रखा। संस्कृत में शुद्ध प्रयोगों पर ध्यान दिया जाता है, इसलिए संस्कृत जगत में इस अटपटे प्रयोग पर बहस शुरू हो गई है। यह बात साफ है कि नाम ‘मुण्डकोपनिषद्’ के ‘सत्यमेव जयते’ से प्रेरित है। ‘श्रमेव जयते’ सुनने में कर्णप्रिय है, लेकिन यह भी है कि नाम तय करने वालों को या तो संस्कृत व्याकरण का ज्ञान नहीं है या उन्होंने जानबूझ कर इसे नजरअंदाज किया है। संस्कृत के मजबूत व्याकरण के कारण ही यह सर्वप्राचीन भाषा आज तक उसी रूप में लिखी-पढ़ी-बोली जा रही है, जैसी बनावट इसकी सदियों पहले थी।

आज संस्कृत लिखने के जितने तरीके हैं, वे सारे महर्षि पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ से प्रेरित हैं। पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ से पहले जो भी संस्कृत लिखी गई वह ‘आर्ष प्रयोग’ के कारण यथावत रखी गई। (यानी उनसे किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं की जा सकती।) इस आर्ष संस्कृत में वेद, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद समेत महर्षि वाल्मीकि की ‘रामायण’ और वेदव्यास का ‘महाभारत’ शामिल है। स्मृतियों और पुराणों के अलावा अनेक दार्शनिक ग्रंथ भी इसी श्रेणी में हैं। इसलिए इन ग्रंथों में लिखे किसी वाक्य में आंशिक परिवर्तन भी शास्त्र-परंपरा में अस्वीकार्य होगा। उन पर वार्तिक, टीका या भाष्य तो लिखे जा सकते हैं, पर उन ग्रंथों के मूल वाक्यों में पाणिनि-व्याकरण के अनुसार कोई गुण-दोष नहीं निकाले जा सकते।

यहां तक कि ‘सत्यमेव जयते’ वाला उपनिषद-वाक्य भी पाणिनि के अनुसार ‘ठीक’ नहीं बैठता; ‘जयते’ क्रियारूप पाणिनि को कतई इष्ट नहीं है। लेकिन उपनिषद-वाक्य होने से हमारी परंपरा बिना कोई अंगुली उठाए इसे श्रद्धा के साथ स्वीकार कर लेती है। वहीं ‘श्रमेव जयते’ वाक्य न तो आर्ष परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है और न ही पाणिनि के व्याकरण का। इसलिए इस वाक्य पर जो बहस छिड़ी है, वह इसके व्याकरण और शब्दों के ‘लिंग’ को लेकर है।
‘सत्यम् एव जयते’ में ‘सत्यम्’ शब्द नपुंसक लिंग है, जिसमें ‘एव’ का संयोग हो जाने से ‘सत्यम् + एव = सत्यमेव’ बन जाता है। ‘श्रमेव’ में यह संयोग या रूप किसी भी तरह से संभव नहीं। ‘श्रम’ शब्द अकारांत पुल्लिंग है। इसलिए इस शब्द का विभक्ति-रूप प्रयोग करने पर, ‘सु’ का विसर्ग ‘:’ होने पर, ‘श्रम:’ शब्द ही बनता है। अब ‘सत्यमेव’ की देखादेखी ‘श्रमेव’ बनाने पर जो स्थिति होगी, उसे समझे बिना इस वाक्य का अर्थ करना कठिन हो जाएगा। ‘श्रम: + एव’ होने पर पाणिनि के सूत्र ‘ससजुषो रु:’ (अष्टाध्यायी 8/2/66) से श्रम के विसर्ग का ‘रु’ हो जाएगा (श्रम+रु+एव)। ऐसा होने पर ‘भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि’ (अष्टाध्यायी 8/3/17) सूत्र स्पष्ट करता है कि ‘अ’ वर्ण है पूर्व में जिसके, ऐसे ‘रु’ के स्थान पर ‘य’ आदेश हो जाता है।


मतलब है कि विसर्ग के ‘रु’ से ठीक पहले ‘अ’ हो तो उस ‘रु’ के स्थान पर ‘य्’ आदेश हो जाता है। ऐसा होने पर स्थिति यह हुई- ‘श्रम+य्+एव’। अब ‘लोप: शाकल्यस्य’ (अष्टाध्यायी 8/3/19) सूत्र से यह पता चलता है कि ‘अवर्णपूर्वक पदांत यकार और वकार का विकल्प से लोप होता है, अश् प्रत्याहार (अ, इ, उ, ऋ, ऌ, ए, ओ, ऐ, औ, ह, य, व, र, ल, ञ, म, ङ, ण, झ, थ, घ, ढ, ध, ज, ब, ग, ड और द) के परे रहने पर।’ इस सूत्र से ‘य’ का लोप होने पर अंतत: ‘श्रम एव’ रूप ही प्रकट होता है, ‘श्रमेव’ नहीं। इसका बहुत सुंदर उदाहरण गीता में ‘अर्जुन उवाच’ है, जहां इसी पाणिनीय प्रक्रिया से विसर्ग संधि हो रही है। अन्यथा यहां भी ‘अर्जुनोवाच’ जैसा अशुद्ध रूप बनने लगता।

रही बात ‘जयते’ की तो पाणिनि के ही एक सूत्र ‘विपराभ्यां जे:’ (अष्टाध्यायी 1/3/19) के अनुसार ‘वि’ और ‘परा’ उपसर्ग होने पर ही ‘जि’ धातु आत्मनेपद होता है। अन्यथा सर्वत्र परस्मैपद ही रहता है। इसलिए ‘जयते’ के स्थान पर ‘जयति’ रूप ही निष्पन्न होगा। परिणामस्वरूप जो वाक्य सिद्ध होगा वह है- श्रम एव जयति। हां, अगर ‘जि’ धातु को आत्मनेपद रख लें तो भी ‘श्रम एव विजयते’ रूप ही बनेगा, जैसे-श्रीजानकीवल्लभो विजयते। ‘सत्यमेव जयते’ के आर्ष प्रयोग ‘जयते’ को छोड़ कर संस्कृत काव्यों में सर्वत्र ‘जयति’ शब्द का प्रयोग ही मिलता है। जयपुर के सुख्यात विद्वान पंडित गिरिधर शर्मा का यह श्लोक देखिए- जयति स भगवान् शम्भु: भुवनोदयलालनप्रलयलील:। गिरिजातप:फलं किल येन शरीरार्द्धमपि दत्तम्।।

पूरे देश में भाषाई तौर पर संस्कृत के विश्वविद्यालय और अकादमियां ही सर्वाधिक हैं। केंद्र सरकार के तीन मानित विश्वविद्यालयों समेत विभिन्न राज्य सरकारों के तेरह विश्वविद्यालयों में लाखों विद्यार्थी संस्कृत पढ़-सीख रहे हैं। ऐसे में, प्रधानमंत्री के हाथों जिस नारे की घोषणा हो रही हो, उसकी भाषा पर ध्यान देने की जरूरत है। ऐसा नहीं होने पर उस भाषा की सुदीर्घ परंपरा के साथ मजाक होता है। उनमें भी संस्कृत जैसी भाषा का अशुद्ध होना तो हमारे संस्कृत के प्रति कथित ‘प्रेम’ को भी प्रकट करता है।

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