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July 30, 2020

Hindi Article: Hagia Sophai_ from Museu to Mosque_ Times are a changing


29 जुलाई 2020 हागिया सोफिया का संग्रहालय से मस्जिद बनना: बदल रहा है समय पिछले तीन दशकों में वैश्विक राजनैतिक परिदृश्य में व्यापक परिवर्तन आये हैं. उसके पहले के दशकों में दुनिया के विभिन्न देशों में साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक ताकतों से मुक्ति के आन्दोलन उभरे और लोगों का ध्यान दुनियावी मसलों पर केन्द्रित रहा आया. जो देश औपनिवेशिक ताकतों के चंगुल से मुक्त हुए उन्होंने औद्योगीकरण, शिक्षा और कृषि के विकास को प्राथमिकता दी. भारत, वियतनाम और क्यूबा उन देशों में से थे जिन्होंने अपने देश के वंचित और संघर्षरत तबकों के सरोकारों पर ध्यान दिया और धार्मिक कट्टरपंथियों को किनारे कर दिया. इन देशों ने धर्म की दमघोंटू राजनीति से निज़ात पाने के लिए हर संभव प्रयास किए. निसंदेह कुछ देश ऐसे भी थे जहाँ के शासकों ने पुरोहित वर्ग से सांठगांठ कर सामंती मूल्यों को जीवित रखने का प्रयास किया और अपने देशों को पिछड़ेपन से मुक्ति दिलवाने की कोई कोशिश नहीं की. ऐसे देशों की नीतियाँ सांप्रदायिक और संकीर्ण सोच पर आधारित थीं. हमारे दो पड़ोसी - पाकिस्तान और म्यांमार - इसी श्रेणी में आते हैं. सन 1980 के बाद से अनेक कारणों से धर्मनिरपेक्ष-प्रजातान्त्रिक शक्तियां कमज़ोर पड़ने लगीं और धर्म का लबादा ओढ़े राजनीति का बोलबाला बढ़ने लगा. इस राजनीति ने समावेशी मूल्यों और नीतियों को हाशिये पर ढकेलना शुरू कर दिया, राज्य को जन कल्याणकारी नीतियों से भटकना प्रारंभ कर दिया और शिक्षा और औद्योगीकरण के क्षेत्र में प्रगति को बाधित किया. पिछले तीन दशकों में धर्म के नाम पर राजनीति का दबदबा बढ़ा है. इस्लामवाद, ईसाईवाद, हिंदुत्व और बौद्ध कट्टरपंथियों की आवाजें बुलंद हुई है और ये सभी विभिन्न देशों को विकास की राह से भटका रहे हैं और समाज के बहुसंख्यक तबके को बदहाली में ढकेल रहे हैं. अमरीका में डोनाल्ड ट्रम्प ईसाई धर्म के नाम पर प्रत्यक्ष और परोक्ष ढंग से अपीलें कर रहे हैं. म्यांमार में अशिन विराथू, बौद्ध धर्म के नाम पर हिंसा भड़का रहे हैं. श्रीलंका में भी कमोबेश यही हालात हैं. वहां वीराथू जैसे लोगों का प्रभाव बढ़ रहा है. भारत में हिंदुत्व की राजनीति परवान चढ़ रही है. अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान अपने देश में ही नहीं वरन पश्चिमी और मध्य एशिया में भी तांडव कर रहे हैं. अफ़ग़ानिस्तान में भगवान बुद्ध की मूर्तियों का विरूपण इसका उदाहरण है. इसी तरह, अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ध्वंस देश के इतिहास का एक दुखद अध्याय है जिसका इस्तेमाल हिन्दू राष्ट्रवादियों ने अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए किया. ये तो इस बदलाव के केवल प्रत्यक्ष प्रभाव हैं. इसके सामाजिक-आर्थिक प्रभाव भी अत्यंत विनाशकारी हुए हैं. इससे नागरिकों, और विशेषकर अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर गहरी चोट पहुंची है. और यह सब वैश्विक स्तर पर हो रहा है. कुछ दशक पहले तक साम्राज्यवादी ताकतें ‘मुक्त दुनिया बनाम एकाधिकारवादी शासन व्यवस्था (समाजवाद)’ की बात करतीं थीं. 9/11 के बाद से, ‘इस्लामिक आतंकवाद’ उनके निशाने पर है. इस समय पूरी दुनिया में अलग-अलग किस्म के कट्टरपंथियों का बोलबाला है. वे प्रजातंत्र और मानव अधिकारों को कमज़ोर कर रहे हैं. हगिया सोफिया संग्रहालय को मस्जिद में बदले जाने की घटना को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में तुर्की ने खलीफ़ा, जो कि ओटोमन (उस्मानी) साम्राज्य का अवशेष था, को अपदस्थ कर, धर्मनिरपेक्षता की राह अपनाई. खलीफ़ा को पूरी दुनिया के मुसलमानों के एक हिस्से की सहानुभूति और समर्थन हासिल था. अतातुर्क की धर्मनिरपेक्षता के प्रति पूर्ण और अडिग प्रतिबद्धता थी. उनके शासनकाल में हागिया सोफिया, जो कि मूलतः एक चर्च था और जिसे 15वीं सदी में मस्जिद बना दिया गया था, को एक संग्रहालय में बदल दिया गया जहाँ सभी धर्मों के लोगों का दर्जा बराबर था और जहाँ सभी का स्वागत था. तुर्की के वर्तमान राष्ट्रपति इरदुगान, जो कई सालों से सत्ता में हैं, धीरे-धीरे इस्लामवाद की ओर झुकते रहे हैं. इस्लामवाद और इस्लाम में वही अंतर है जो हिन्दू धर्म और हिंदुत्व में या ईसाईयत और कट्टरपंथी ईसाई धर्म में है. इरदुगान ने अपने राजनैतिक करियर की शुरुआत इस्ताम्बुल के मेयर के रूप में की थी. उन्होंने इस पद पर बेहतरीन काम किया और आगे चल कर वे तुर्की के प्रधानमंत्री बने. शुरूआती कुछ वर्षों में उन्होंने आर्थिक मोर्चे पर बहुत अच्छा काम किया. बाद में वे आत्मप्रशंसा के जाल में फँस गए और सत्ता की भूख के चलते इस्लामिक पहचान की राजनीति की ओर झुकने लगे. उनकी नीतियों से देश के नागरिकों की ज़िन्दगी मुहाल होने लगी और नतीजे में स्थानीय संस्थाओं के चुनाव में उनकी हार हो गयी. इसके बाद उन्होंने इस्लामवाद को पूरी तरह अपना लिया और इस्ताम्बुल की इस भव्य इमारत - जो तुर्की की वास्तुकला का सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक है - को मस्जिद में बदलने का निर्णय लिया. मुसलमानों का एक तबका इसे ‘इस्लाम की जीत बताकर जश्न मना रहा है. इसके विपरीत इस्लाम के वास्तविक मूल्यों और उसकी मानवीय चेहरे की समझ रखने वाले मुसलमान, इरदुगान के इस निर्णय का कड़ा विरोध कर रहे हैं. उनका कहना है कि इस्लाम में धार्मिक मामलों में जोर-जबरदस्ती के लिए कोई जगह नहीं है (तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन है और मेरे लिए मेरा दीन है). यह भारत में व्याप्त इस धारणा के विपरीत है कि देश में तलवार की नोंक पर इस्लाम फैलाया गया. इस्लाम के गंभीर अध्येता हमें यह दिलाते हैं कि एक समय पैगम्बर मोहम्मद, गैर-मुसलमानों को भी मस्जिदों में प्रार्थना करने के लिए आमंत्रित करते थे. कहने की ज़रुरत नहीं कि हर धर्म में अनेक पंथ होते हैं और इन पंथों के अपने-अपने दर्शन भी होते हैं. इस्लाम में भी शिया, सुन्नी, खोजा, बोहरा और सूफी आदि पंथ है और कई विधिशास्त्र भी, जिनमें हनाफी और हन्नाबली शामिल हैं. ईसाईयों में कैथोलिकों के कई उप-पंथ हैं और प्रोटोस्टेंटों के भी. हर पंथ अपने आपको अपने धर्म का ‘असली’ संस्करण बताता है. सच तो यह है कि अगर विभिन्न धर्मों में कुछ भी असली है तो वह है अन्य मनुष्यों के प्रति प्रेम और करुणा का भाव. धर्मों के कुछ पक्ष, सत्ता की लौलुपता को ढांकने के आवरण मात्र है. इसी के चलते कुछ लोग जिहाद को उचित बताते हैं, कुछ क्रूसेड को और अन्य धर्मयुद्ध को. हागिया सोफिया को मस्जिद में बदलने के निर्णय के दो पक्ष हैं. चूँकि इरदुगान की लोकप्रियता में तेजी से गिरावट आ रही थी इसलिए उन्होंने धर्म की बैसाखियों का सहारा लिया. दूसरा पक्ष यह है कि दुनिया के अनेक देशों में कट्टरपंथियों का बोलबाला बढ़ रहा है. सन 1920 के दशक में कमाल अतातुर्क धर्म की अत्यंत शक्तिशाली संस्था से मुकाबला कर धर्मनिरपेक्ष नीतियाँ और कार्यक्रम लागू कर सके. पिछले कुछ दशकों में, धार्मिक कट्टरता ने अपने सिर उठाया है. इसका प्रमुख कारण है अमरीका द्वारा अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत सेनाओं से मुकाबला करने के लिए अल कायदा को खड़ा करना और बाद में सोवियत यूनियन का पतन, जिसके चलते अमरीका दुनिया की एकमात्र विश्वशक्ति बन गया. अमरीका ने दुनिया के कई इलाकों में कट्टरतावाद को प्रोत्साहन दिया. इससे धीरे-धीरे धर्मनिरपेक्षता की ज़मीन पर धर्म का कब्ज़ा होता गया. (हिंदी रूपांतरणः अमरीश हरदेनिया)