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March 20, 2020

Hindi Article-Caste and Communal violence


साम्प्रदायिक हिंसा का धर्म से कितनासम्बन्ध है -राम पुनियानी दिल्ली मेंहुए खून-खराबे, जिसे मुसलमानों के खिलाफ हिंसा कहना बेहतर होगा, ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है. विभिन्न टिप्पणीकार और विश्लेषक यह पता लगाने का भरसक प्रयास कर रहेहैं कि इस हिंसा के अचानक भड़क उठने के पीछे क्या वजहें थीं. भारत में साम्प्रदायिकहिंसा के विश्लेषण में जिस एक कारक को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है वह है जाति.जाति को उन ग्रंथों की स्वीकृति और मान्यता प्राप्त है, जिन्हें हम ‘हिन्दू धर्मग्रंथ’कहते हैं. जातिप्रथा, हिन्दू सामाजिक व्यवस्था का अविभाज्य अंग है, जिसकी चपेट मेंअन्य धार्मिक समुदाय भी आ गए हैं. जहां हिन्दू राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व के संदर्भोंमें जाति के कारक का विस्तार से विश्लेषण और अध्ययन हुआ है वहीं साम्प्रदायिक हिंसामें जाति की भूमिका के विश्लेषण को काफी हद तक नजरअंदाज किया जाता रहा है. सूरज येंगड़ेने ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के दिल्ली संस्करण में 8 मार्च 2020 को प्रकाशित अपने लेखमें इस मुद्दे पर कुछ समीचीन टिप्पणियां कीं हैं. वे लिखते हैं, “दिल्ली के दंगों कोहिन्दुत्व व हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बैरभाव के संदर्भों में समझने के प्रयासहो रहे हैं. इसके पीछे इन दोनों में से कोई भी कारक नहीं है. दरअसल, इस तरह की घटनाओंके लिए साम्प्रदायिक नहीं बल्कि जातिगत तनाव जिम्मेदार हैं.”अपने लेख मेंयेंगड़े ने गुजरात के सामाजिक कार्यकर्ता राजू सोलंकी के विश्लेषण का हवाला दिया है.राजू सोलंकी लिखते हैं कि “सन् 2002 के गोधरा दंगों के सिलसिले में अहमदाबाद में कुल2,945 लोगों को गिरफ्तार किया गया था. इनमें से 1,577 हिन्दू थे और 1,368 मुसलमान.गिरफ्तार किए गए हिन्दुओं में से 797 ओबीसी थे, 747 दलित, 19 पटेल, 2 बनिया और 2 ब्राम्हण.इनमें से ऊँची जातियों के आरोपी तो विधायक बन गए और अन्यों को जेल के सींखचों के पीछेडाल दिया गया. यह मात्र संयोग नहीं है कि भारत में सन 2015 में गिरफ्तार किये गएव्यक्तियों में  से 22 प्रतिशत दलित, 11 प्रतिशतआदिवासी, 20 प्रतिशत मुसलमान और 31 प्रतिशत ओबीसी थे. जिन लोगों के विरूद्ध मुकदमेचले, उनमें से 55 प्रतिशत इन्हीं समुदायों से थे (एनसीआरबी, 2015).”इन आंकड़ों कीसत्यता को स्वीकार करते हुए भी यह कहा जा सकता है कि हिन्दुत्व की राजनीति के परवानचढ़ने में जाति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. परंतु जहां तक साम्प्रदायिक हिंसा काप्रश्न है, उसमें जहाँ धर्म की प्रमुख भूमिका रहती है वहीं जाति दूसरा सबसे बड़ा कारकहोती है. हिन्दू राष्ट्रवाद के झंडाबरदार आरएसएस के संबंध में बिना किसी हिचक के कहाजा सकता है कि उसके उदय और उसकी ताकत में इजाफे का मुख्य कारण बढ़ती जातिगत चेतना औरजाति व वर्ण व्यवस्था से उपजे अन्याय और अत्याचार का प्रतिरोध था. आरएसएस के गठन केपूर्व ही देश में हिन्दू महासभा अस्तित्व में आ चुकी थी. यह संगठन मुस्लिम लीग का विरोधीतो था परंतु एक अर्थ में उसका समानांतर संगठन भी था. शुरूआत में इन दोनों संगठनों केसदस्यों में राजाओं और जमींदारों का बोलबाला था परंतु बाद में समाज के श्रेष्ठि संपन्नवर्ग के कुछ लोग भी इनसे जुड़ गए. आरएसएस का उदयमूलतः सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्रों में आम लोगों और नीची जातियों के सदस्यों के प्रवेशकी प्रतिक्रिया था. नागपुर-विदर्भ क्षेत्र में ब्राम्हण-विरोधी आंदोलन और महात्मा गांधीद्वारा शुरू किए गए असहयोग आंदोलन से  ब्राम्हणवादीइतने भयातुर हो गए कि उन्होंने राजाओं और जमींदारों के समर्थन और सहयोग से हिन्दू राष्ट्रका झंडा उठा लिया. हिन्दुत्व की राजनीति के मूल में था प्राचीन भारत, जिसमें मनुसंहिता का बोलबाला था, का महिमामंडन. जोतिबा फुले और उनके बाद अंबेडकर द्वारा शुरूकिए गए अभियानों से दलितों का जो सशक्तिकरण हो रहा था, ब्राम्हणवादी ताकतें उससे भयग्रस्तहो गईं थीं.मूल मुद्दातो यही था परंतु हिन्दुओं को एक करने के लिए यह आवश्यक था कि उनके किसी ‘बाहरी’ शत्रुका अविष्कार किया जाए और इसके लिए मुसलमानों से बेहतर भला कौन हो सकता था? विशेषकरइसलिए क्योंकि मुसलमानों ने भारत पर लंबे समय तक राज किया था. इस तरह संघ का मूल एजेंडादलितों को दलित बनाए रखना था परंतु उस पर मुस्लिम-विरोध का मुल्लमा चढ़ा दिया गया. आरएसएसकी शाखाओं और बौद्धिकों में इतिहास को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना शुरू कर दिया गया.जहां मुसलमानों को प्रत्यक्ष शत्रु बताया गया वहीं प्राचीन भारत का महिमामंडन कर लैंगिकऔर जातिगत पदक्रम को वैध ठहराने का प्रयास भी शुरू किया गया. हिन्दुत्व के अभियान कोजिस मुद्दे ने सबसे पहले हवा दी वह था एक मुस्लिम बादशाह द्वारा कथित तौर पर भगवानराम की जन्मभूमि पर स्थित मंदिर को ढ़हाया जाना. परंतु इस अभियान ने सन् 1990 में मंडलआयोग की सिफारिशें लागू किए जाने के बाद जोर पकड़ा. हिन्दुत्व की राजनीति, मुस्लिम-विरोधके साथ-साथ जातिगत और लैंगिक पदक्रम को बनाए रखने का उपक्रम भी थी. हिन्दू राष्ट्रवादके ताकतों का यही एजेंडा है. जहाँ तक सांप्रदायिक दंगों का सवाल है, वे मूलतःमुसलमानों का कत्लेआम ही रहे हैं. आंकड़ों से यह साफ़ है कि सांप्रदायिक हिंसा केपीड़ितों में से 80 प्रतिशत मुसलमान होते हैं. वे समाज के सभी आर्थिक वर्गों सेहोते हैं परन्तु इनमें गरीबों की बहुतायत होती है. दंगों कोभड़काने में जाति की मुख्य भूमिका रहती है. हिंदुत्व के पैरोकार बड़े पैमाने परदलितों के बीच सक्रिय रहे हैं. भंवर मेघवंशी की हालिया पुस्तक, “आई वास एस्वयंसेवक” बहुत बेहतर तरीके से यह बताती है कि किस प्रकार दलितों को सांप्रदायिकहिंसा में शामिल किया जाता है. संघ ने सामाजिक समरसता मंच सहित कई ऐसे संगठनों का जालबिछाया है जो दलितों में ब्राह्मणवादी मूल्यों का प्रचार-प्रसार करते हैं और उन्हेंहिन्दुत्ववादी राजनीति का हिस्सा बना रहे हैं. दलितों का सांप्रदायिक दंगों में मोहरेकी रूप में इस्तेमाल किया जाता है. वे सड़कों पर हिंसा करते हैं जबकि नफरत फैलानेवाले, लोगों के दिमाग में जहर भरने वाले, अपने घरों और कार्यालयों में आराम सेबैठे रहते हैं. गुजरातहिंसा के चेहरे अशोक मोची अब दलित-मुस्लिम एकता के समर्थक हैं. राजू सोलंकी द्वारासंकलित आंकड़े, जिनका येंगड़े ने अपने लेख में हवाला दिया है, भारत में हिंसा कीकहानी कहते हैं. जिन लोगों को भड़काया जाता है और जिन्हें बाद में जेलों में ठूंसदिया जाता है, वे उन लोगों में से नहीं होते जो संघ को चंदा देते हैं और उसकीविभिन्न गतिविधियों का समर्थन करते हैं. सड़कों पर खून-खराबा करने वाले लोग होतेहैं पददलित समुदायों के गुमराह कर दिए गए युवक. सांप्रदायिकहिंसा में जाति की भूमिका को रेखांकित कर, येंगड़े ने एक महत्वपूर्ण काम किया है. परन्तुउनके विश्लेषण में जो कमी है वह है धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत फैलाने केअभियान की भूमिका को कम करके आंकना क्योंकि यही हिंसा भड़काने का आधार होता है.शाखाओं के ज़रिये जिस तरह के गलत तथ्य और बेबुनियाद धारणाएं लोगों के दिमाग में भरीजातीं हैं, वे अत्यंत प्रभावकारी सिद्ध होती हैं. यह भंवर मेघवंशी के विवरण सेस्पष्ट है, जिन्होनें बताया है कि उन्हें संघ के दुष्प्रचार की धुंध से बाहर निकलकर जाति के यथार्थ को समझने में कितना वक्त लग गया. (हिंदीरूपांतरण: अमरीश हरदेनिया)