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September 22, 2017

Hindi Article- Gauri Lankesh: Victim of Hate Ideology


नफरत फैलाने वाली विचारधारा ने की गौरी लंकेश की हत्या -राम पुनियानी गौरी लंकेश की गत 5 सितंबर, 2017 को बेंगलुरू में हुई हत्या से उन लोगों को गहरा धक्का लगा है जो प्रगतिशील और उदारवादी मूल्यों के हामी हैं। कई हिन्दुत्ववादी ‘ट्रोलों’ ने इस हत्या का जश्न मनाया। इनमें से कई ट्रोल ऐसे हैं जिन्हें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘फॉलो’ करते हैं। गौरी केवल एक पत्रकार नहीं थीं। वे बेंगलुरू की जानमानी सामाजिक कार्यकर्ता भी थीं। वे कन्नड़ पत्रिका ‘गौरी लंकेश पत्रिके’ की संपादक थीं। यह पत्रिका उनके पिता पी. लंकेश द्वारा शुरू की गई ‘लंकेश पत्रिके’ की उत्तराधिकारी थी। वे जातिवाद, ब्राह्मणवाद और आरएसएस की हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति की कठोर आलोचक थीं। प्रजातांत्रिक और सामाजिक अधिकारों से जुड़े मुद्दों पर साफगोई से अपनी बात रखने से वे कभी नहीं चूकीं। वे अल्पसंख्यकों के अधिकारों की पैरोकार थीं और उन्होंने लिंगायतों के एक अलग धार्मिक समुदाय होने के दावे का समर्थन किया था। वे ब्राह्मणवाद के वर्चस्व की कटु विरोधी थीं। सामाजिक कार्यकर्ता बतौर वे ‘कौमू सौहार्द वेदिके’ नामक धर्मनिरपेक्ष समूह से जुड़ी हुई थीं। इस समूह ने सामाजिक सौहार्द को बढ़ावा देने वाले कई आंदोलन चलाए और बाबा बुधनगिरी के मसले पर अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा का कड़ा विरोध किया। उनकी पत्रिका कन्नड़ भाषा में प्रकाशित होती थी और स्थानीय राजनीति पर उसका गहरा प्रभाव था। मुख्य मुद्दा यह है कि वे हिन्दुत्ववादी राजनीति की विरोधी थीं और इस अर्थ में वे दाभोलकर, पंसारे और कलबुर्गी जैसे तार्किकतावादी विचारकों की कामरेड थीं। उनकी हत्या का देश भर में विरोध हुआ। ‘आई एम गौरी’ लिखे हुए प्लेकार्ड लेकर देश भर में लोगों ने विरोध प्रदर्शन किए। लोग उनके प्रशंसक इसलिए थे क्योंकि उन्होंने अपने सिद्धांतों और विचारधारा से कभी समझौता नहीं किया। वे अपने काम के बारे में क्या सोचती थीं यह उनके इस वक्तव्य जाहिर हैः ‘‘...मैं हिन्दुत्व की राजनीति की निंदा करती हूं और जाति व्यवस्था की भी, जो हिन्दू धर्म का हिस्सा मानी जाती है। इसके कारण मेरे आलोचक मुझे हिन्दू-विरोधी बताते हैं। परंतु मेरा यह मानना है कि एक समतावादी समाज के निर्माण के लिए जो संघर्ष बसवन्ना और आंबेडकर ने शुरू किया था, उसे आगे बढ़ाना मेरा कर्तव्य है और जितनी मेरी शक्ति है, उतना मैं कर रही हूं’’। ये शब्द गौरी लंकेश की सामाजिक प्रतिबद्धता को प्रतिबिम्बित करते हैं। उन्हें जिस ढंग से मारा गया, वह ठीक वैसा ही था जिस ढंग से कलबुर्गी, पंसारे और दाभोलकर को मारा गया था। वे एक पत्रकार भी थीं और इस अर्थ में उनकी हत्या, देश में पिछले कुछ वर्षों में बड़ी संख्या में पत्रकारों की हत्या से भी जुड़ती है। उनकी हत्या किसने की इसके बारे में कई अलग-अलग बातें कही जा रही हैं। उनके भाई, जिनकी विचारधारा उनसे अलग है, ने यह संदेह व्यक्त किया कि इस हत्या के पीछे नक्सलवादी हो सकते हैं क्योंकि गौरी कई नक्सलवादियों को सामाजिक मुख्यधारा में लाने का प्रयास कर रहीं थीं। नक्सलवादी यदि किसी की हत्या करते हैं तो वे इस तथ्य को छुपाते नहीं हैं। यह एक जाहिर बात है। ऐसा लगता है कि गौरी लंकेश के भाई का यह वक्तव्य, असली मुद्दे से ध्यान बंटाने का प्रयास है। राहुल गांधी ने कहा कि ‘‘जो भी आरएसएस और विहिप के खिलाफ बोलता है, उस पर हमले होते हैं और उसकी जान ले ली जाती है’’। उन्होंने एक ट्वीट कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर हमला बोलते हुए कहा कि ‘‘प्रधानमंत्री केवल बहुत दबाव पड़ने पर इस तरह के मुद्दों पर कुछ बोलते हैं। जो कुछ हो रहा है उसका असली उद्देश्य असहमति को कुचलना है और यह इस देश में एक बहुत बड़ी समस्या बन गया है।’’ इसी तरह, जानेमाने इतिहासविद रामचन्द्र गुहा ने कहा कि ‘‘इस बात की काफी संभावना है कि उनके (गौरी लंकेश) हत्यारे उसी संघ परिवार से आए हों, जिसने पंसारे, कलबुर्गी और दाभोलकर की हत्या की थी।’’ कर्नाटक भाजपा युवा मोर्चा ने गुहा को एक कानूनी नोटिस भेजकर उनसे, उनके इस वक्तव्य को वापस लेने के लिए कहा है। भाजपा के एक शीर्ष नेता नितिन गडकरी ने कहा कि इस हत्या से आरएसएस और भाजपा के कार्यकर्ताओं का कोई लेनादेना नहीं है। इसी के साथ एक भाजपा विधायक ने कहा कि अगर गौरी ने संघ परिवार के अंत का जश्न मनाने की बात नहीं कही होती तो शायद वे आज जीवित होतीं। हत्या की जांच जारी है परंतु अब तक जो कुछ सामने आया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि उनके हत्यारे वही लोग थे जिन्होंने दाभोलकर, पंसारे और कलबुर्गी को मौत के घाट उतारा था। परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस तरह की घटनाओं के लिए केवल वे लोग ज़िम्मेदार नही होते जो पिस्तौल का ट्रिगर दबाते हैं। इसके पीछे दरअसल नफरत फैलाने वाले अभियान और राजनीति होती है। गौरी लंकेश के पूर्व हुई तार्किकतावादियों की हत्याओं के सिलसिले में सनातन संस्था के कुछ सदस्यों को हिरासत में लिया गया है। यह हत्या भी उन घटनाओं से मिलती-जुलती है। इस तरह की घटनाओं के पीछे दरअसल क्या होता है, इसका अत्यंत सारगर्भित विवरण सरदार पटेल ने महात्मा गांधी की हत्या के बाद लिखे अपने एक पत्र में वर्णित किया था। ‘‘जहां तक आरएसएस और हिन्दू महासभा का प्रश्न है...सरकार को मिली सूचनाएं और रपटें यह बताती हैं कि इन दोनों संस्थाओं, विशेषकर पहली (आरएसएस) की गतिविधियों के कारण देश में ऐसा वातावरण बना जिसके चलते यह भयावह त्रासदी संभव हो सकी...’’। यह बात सरकार पटेल ने हिन्दू महासभा के अध्यक्ष श्यामाप्रसाद मुखर्जी को 18 जुलाई, 1948 को लिखे अपने एक पत्र में कही थी (सरदार पटेल करसपोनडेंस, खंड 6, संपादक दुर्गादास)। पटेल केवल गांधीजी के हत्यारे गोडसे की बात कहकर रूक सकते थे परंतु उन्होंने उससे आगे जाकर उस विचारधारा की बात की, जिसके कारण इस तरह की हत्या हो सकी। यही बात आज समाज में हो रही सांप्रदायिक हिंसा के बारे में सही है। हिंसा करने वाले व्यक्तियों की तो पहचान हो रही है और उनमें से कुछ को सज़ा भी मिली है परंतु वह विचारधारा, जो इस तरह की हिंसा के पीछे होती है, उस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है। अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा की पृष्ठभूमि, देश में संप्रदायवादी राजनीति के उदय के साथ शुरू हुई थी। इसके चलते अल्पसंख्यकों के बारे में आम लोगों के मन में ज़हर भर दिया गया और इसका लाभ उठाकर निहित स्वार्थी राजनीतिक नेतृत्व जब चाहे तब सांप्रदायिक दंगे भड़काने में सक्षम हो गया। गोडसे, आरएसएस का एक प्रशिक्षित स्वयंसेवक था जिसने बाद में हिन्दू महासभा की सदस्यता ले ली थी। उसका यह आरेाप था कि महात्मा गांधी मुसलमानों का तुष्टिकरण कर रहे हैं और हिन्दुओं के हितों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। अदालत में दिया गया उसका बयान उस हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा पर आधारित था जिसने महात्मा को निशाना बनाया। यह साफ है कि गौरी के हत्यारे नफरत की विचारधारा से प्रेरित थे और यह भी कि उनकी हत्या कलबुर्गी, दाभोलकर और पंसारे की हत्या की अगली कड़ी है। हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा इस तरह की हिंसा को प्रोत्साहन दे रही है। यह हत्या, बढ़ते हुए संप्रदायवाद और असहिष्णुता का परिणाम है। (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)